श्रीमद भगवद गीता : ०८

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ।।१२-८।।

 

 

तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है। ।।१२-८।।

 

भावार्थ:

अध्याय १२ श्लोक १ में अर्जुन दुवारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर अध्याय १२ श्लोक ७ में समाप्त करते है।

अब इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के समुख होकर कहते है कि मने अभी तक जो परमात्मतत्व का ज्ञान दिया है, विज्ञान कहा है, उससे तुम अपने विवेक को जागृत करो। उस ज्ञान को पूर्ण रूप से ग्रहण करो और अपने मन और बुद्धि को परमात्मा में स्थिर करो। अर्थात युद्ध के विषय का त्याग करो और केवल परमात्मा का ही चिन्तन करो। ऐसा करने से तुम परम शांति को प्राप्त होंगे, इसमें संशय नहीं है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मुख्य बात है मन और बुद्धि को स्थिर करने की। फिर वह स्थिरता सगुण परमात्मा में हो या अव्यक्त में। मन और बुद्धि स्थिर होने पर तुम परम आनन्द में निरन्तर निवास करोगे।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

मन और बुद्धि को परमात्मा में स्थिर करने का अर्थ इस प्रकार है।

  1. सांसारिक विषयों के चिन्तन का त्याग करो और केवल परमात्मा का ही चिन्तन करता है। अर्थात युद्ध के विषय पर विचार मत करो और केवल युद्ध करो।
  2. अपने धर्म का पालन करो। तुम्हारे सभी कार्य संसार-समाज के कल्याण के लिये हो। अर्थात युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म है, अतः युद्ध करो।
  3. कार्यों में अहन्ता का त्याग करो। युद्ध मे “मैं अर्जुन” अन्यों को मारता हूँ, ऐसी अहन्ता का त्याग करो।
  4. कर्म फल में आसक्ति का त्याग करो। युद्ध से सम्बन्ध मान कर उसके परिणाम से व्यथित मत हो।

 

 

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