श्रीमद भगवद गीता : ०९

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।१२-९।।

 

हे धनंजय! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो। ।।१२-९।।

 

भावार्थ:

अध्याय ६ श्लोक ३३ में अर्जुन ने मन चञ्चल होने के कारण मन को स्थिर करने में कठिनता व्यक्त की थी। उसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ६ श्लोक ३५ में अभ्यास के द्वारा मन को स्थिर किया जा सकता है, ऐसा वर्णन किया था।

उसी विषय को याद करते हुये भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में पुनः कहते है कि हे धनंजय अगर तुम मन और बुद्धि को स्थिर करने में असमर्थ हो तो वह, अभ्यास के द्वारा किया जा सकता है। और ऐसी (अभ्यास की) इच्छा करके तुम मन को स्थिर करने का प्रयत्न करो।

ऐसा करने से तुम्हारा मन शान्त होगा।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

पूर्व श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण मन और बुद्धि को स्थिर करने के लिये कहते है। संक्षेप में मन और बुद्धि को स्थिर करने के लिये योग साधना और ध्यान का अभ्यास करो – ऐसा इस श्लोक में कहते है।

इस श्लोक में  ‘चित्तम्’ पद से मन और बुद्धि दोनों ही आ जाते है।

समता में स्थिर होना बुद्धि की स्थिरता है। मन से केवल परमात्मा का चिन्तन होना मन की स्थिरता है। समता की प्राप्ति योग साधना से होती है और परमात्मा का चिन्तन, ध्यान का अभ्यास करने से होता है। इस कारण इस श्लोक में ‘अभ्यासयोग’ पद कहा गया है।

‘मामिच्छाप्तुं’ – मुझे प्राप्त करने की इच्छा करो। यहा ‘मुझे’ पद से अर्थ परमात्मा प्राप्ति से है, समता प्राप्ति से है। अध्याय २ श्लोक ४१ में भी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समता प्राप्ति से लिये व्यवसायात्मिक (निश्चयात्मक) बुद्धि करने लिये कहते है।

 

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