श्रीमद भगवद गीता : ०१

अर्जुन उवाच

 ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ।।१७-०१।।

 

अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र-विधिका त्याग करके श्रद्धापूर्वक देवता आदिका पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विक है अथवा राजसी-तामसी? ।।१७-०१।।

 

भावार्थ:

पूर्वाध्याय के अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने शास्त्रों को मान कर कर्तव्य पालन करने पर विशेष बल दिया। परन्तु अर्जुन अभी भी युद्ध रूपी कर्तव्य को करने की स्थिति में नहीं था।

अर्जुन प्रश्न करते है कि मनुष्य कर्तव्यों का पालन तो नहीं करता और कामना के ही आश्रित रहता है। परन्तु कामना पूर्ति के लिये जब वह श्रद्धा एवं विधि पूर्वक देवता आदिका पूजन करता है तो उसकी गति किस प्रकार की होती है और उसका आचरण किस प्रकार का होता है। उनका आचरण देवी सम्पदा प्राप्त मनुष्य के समान होता है या की आसुरी सम्पत्ति प्राप्त मनुष्य के समान।

देवता आदिका पूजन करने में उनमें किस गुण की प्रधानता होती है।

 

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