श्रीमद भगवद गीता : १०

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।।१७-१०।।

 

 

जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धित, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो महान् अपवित्र भी है, वह तामस मनुष्य को प्रिय होता है। ।।१७-१०।।

 

भावार्थ:

पकने के लिये जिन को पूरा समय प्राप्त नहीं हुआ हो या उचित समय से ज्यादा पके हुए। ऋतु चली जाने पर फ्रिज आदि की सहायता से रखे हुए फल-सब्जी। धूप आदिसे जिनका स्वाभाविक रस सूख गया है अथवा मशीन आदिसे जिनका सार खींच लिया गया है। सड़नसे पैदा की गयी मदिरा और स्वाभाविक दुर्गन्धवाले प्याज, लहसुन आदि। मांस, मछली, अंडा आदि। यह सब तामसिक आहार है।

पुनः यह बात विचार करने की है कि मनुष्य को स्वयं से राजसिक एवं तामसिक आहार का त्याग करना चाहिये। परन्तु जब मनुष्य भोजन के लिये अन्यों पर आश्रित है और आहार ग्रहण करना जीवन निर्वह के लिये अनिवार्य है, तब जो और जैसा प्राप्त हो जाय उसको भगवान का प्रशाद मान कर प्रेम भाव से ग्रहण कर लेना चाहिये। उसमें दुवेश करने से शरीर से आसक्ति और बन्धन हो जायगा।

 

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