श्रीमद भगवद गीता : २५

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।

दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि: ।।१७-२५।।

 

 

‘तत्’ नामसे कहे जानेवाले परमात्माके लिये ही सब कुछ है, ऐसा मानकर मुक्ति चाहनेवाले मनुष्योंद्वारा फलकी इच्छासे रहित होकर अनेक प्रकारकी यज्ञ और तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं। ।।१७-२५।।

 

भावार्थ:

तत् पद से भाव क्या है, उसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

परमात्मा की सत्ता नित्य-निरन्तर है। दृश्यमान सृष्टि परमात्मा का साकार रूप है परन्तु उसमें निरन्तर परिवर्तन है। दृश्यमान सृष्टि में निरन्तर होने वाले परिवर्तन (क्रिया) का कारण भी परमात्मा है। यह भाव तत् पद से इंगित होता है।

इस दृश्यमान सृष्टि में मनुष्य का कर्तव्य है की वह सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में क्रिया के रूप में योगदान दे। क्रिया को करने के फल स्वरूप वह स्वयं के लिये किसी प्रकार के फल की कामना न करे। कामना न करने पर भी मनुष्य को इस दृश्यमान सृष्टि से निरन्तर कुछ न कुछ प्राप्त होता ही है। मनुष्य का कर्तव्य है कि प्राप्त वस्तु को मनुष्य पुनः सृष्टि के कार्य में लगा दे। स्वयं के लिये केवल जीवन निर्वाह मात्र के रूप में करे।

मोक्ष चाहने वाले साधक फलकी इच्छा से रहित रहते है और मानते है कि ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये ही सब कार्य होते है। कार्य के होने में भी कारण परमात्मा है। इस विचार के साधक निरन्तर, अनेक प्रकार के यज्ञ (प्राप्त कर्तव्य), तप रूप और दान रूप क्रियाओं को करता है।

दान करते समय न तो वह यह मानता है कि दान की जाने वाली वस्तु उसकी है, और न ही वह यह अहंकार करता है की वह दान करता है।

‘ऊँ, तत् सत्’ से उसका भाव यही रहता है की परमात्मा से प्राप्त वस्तु, परमात्मा रूपी याचक को परमात्मा की प्रेणना से मिल रही है।

 

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