श्रीमद भगवद गीता : २७

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ।।१७-२७।।

 

 

यज्ञ, तप और दान में दृढ़ स्थिति भी सत् कही जाती है, और उस (परमात्मा) के निमित्त किया जानेवाला कर्म भी सत् ही कहलाता है। ।।१७-२७।।

 

भावार्थ:

जैसा पूर्व श्लोक में कहा है, परमात्मा प्राप्ति के लिये दृढ़ निश्चय होना, तथा, यज्ञ, तप और दान में दृढ़ स्थिति (निरन्तर रूप से करना) होना भी सत् पद के अन्तर्गत आती है। सभी कार्यों को परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला भाव और कार्य भी सत् ही कहलाता है।

क्योंकि सत् पद अविनाशी परमात्मा के लिये आता है, इसलिये जो यज्ञ, तप और दान (सात्विक) परमात्मा (संसार-समाज के कल्याण) के लिये किये जाते है, वह कार्य भी सत् है और उनका फल भी सत् है। सत्  फल कभी समाप्त नहीं होता।  वह निरन्तर मनुष्य का कल्याण करने वाला होता है।

 

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