श्रीमद भगवद गीता : २८

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।।१७-२८।।

 

 

हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ यज्ञ, दिया हुआ दान और तप तथा और भी जो कुछ किया जाय, वह सब ‘असत्’ – ऐसा कहा जाता है। उसका फल न यहाँ होता है, न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता। ।।१७-२८।।

 

भावार्थ:

इस श्लोक में स्वयं के लिये किये जाने वाले कार्यों को अश्रद्धा पूर्ण कार्य कहा गया है।

अध्याय १७ श्लोक ११ से श्लोक २२ तक में तीन-तीन प्रकार के यज्ञ, तप और दान बताये गये है। इसमें राजस, तामस भाव से किये जाने वाले यज्ञ, तप और दान अश्रद्धा से किये जाने वाले कार्य है। कारण कि इस प्रकार के कार्य मनुष्य शरीर से सम्बन्ध मान कर स्वयं के लिये करता है।

अश्रद्धा से किये जाने वाले कार्यों का फल नाशवान होता है। नाशवान होने के कारण वह प्राप्त फल न तो इस लोक में मनुष्य का कल्याण करता है और न ही अन्य किसी लोक में। अतः अश्रद्धा से किये जाने वाले कार्य व्यर्थ हो जाते है।

इस श्लोक में ‘असत्’ पद का अर्थ व्यर्थ कार्य, नाशवान फल से है।

सत्-असत् का अर्थ सत्य-असत्य से नहीं है, अपितु अविनाशी-नाशवान से है।

 

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