श्रीमद भगवद गीता : ०३

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।। १७-०३।।

 

 

हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा अन्तःकरणके अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। इसलिये जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा स्थिति है। ।। १७-०३।।

 

भावार्थ:

कामना के आश्रित मनुष्य के अन्तःकरण में सात्त्विक, राजस अथवा तामस, जैसे संस्कार होते हैं, उसी के अनुसार ही मनुष्य की श्रद्धा अलग-अलग प्रकार के देवताओं में होती है।

कामना के आश्रित मनुष्य का स्वरूप भी अपने श्रद्धेय देवता के अनुरूप होता है और वही (देवता के अनुरूप) उसकी गति भी होती है।

 

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