श्रीमद भगवद गीता : ११

योगी अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं।

 

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।५.११।। 

 

योगी आसक्ति और ममता रहित होकर, इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धि के द्वारा केवल अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं। ||५-११||

 

भावार्थ:

अध्याय ५ श्लोक १० में वर्णन हुआ है कि योग युक्त्त साधक सन्सार और संसारिक पदार्थों में आसक्ति का त्याग करके सभी कार्य स्वयं के लिये न करके समाज कल्याण के लिये करता है। सभी कार्य समाज के कल्याण के लिये करना ही कार्यों को परमात्मा के अर्पण करना है। ऐसा करने से अहंता का त्याग होता है।

परन्तु मनुष्य जब समाज के लिये कार्य करता है, तब, शरीर के ममता (यह शरीर मेरा है) भाव होने के कारण, शरीर के कष्ट को वह अपना कष्ट मानता है। इस कारण मनुष्य प्राप्त कर्तव्यों को तत्परता से नहीं करता। अतः ममता का त्याग करने के लिये भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में कहते है।

योग युक्त्त साधक की यह निश्चित बुद्धि होती है की उसको अन्तःकरण की शुद्धिके लिये ही सभी कार्य करने है, और यह ही उसके जीवन का उदेश्य है। शरीर में अहंता, ममता का त्याग और संसार के पदार्थों में राग-द्वेष, कामना का त्याग होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है।

अध्याय ५ श्लोक ७ में कहा गया है कि योग युक्त्त साधक का अन्तःकरण शुद्ध होता है, और इस कारण उसके सभी कार्य समाज के लिये होते है। परन्तु आसक्ति, अहंता एवं ममता के कारण अन्तःकरण में विषमता, विकार तुरन्त उत्त्पन्न हो जाता है। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में योगी को निरन्तर अन्तःकरण की शुद्धि के लिये कार्य करने को कहा है।

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