श्रीमद भगवद गीता : १३

अन्तःकरण से सन्यासी कार्य करता हुआ भी सुख में स्थित रहता है।

 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ।।५.१३।। 

 

जो अन्तःकरण से सन्यासी है, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले शरीररूपी पुर से सम्पूर्ण कार्यों को करता हुआ भी अहंता रूपी बुद्धि से न कार्य को करता है और न करवाता है और वह सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है। ||५-१३||

 

भावार्थ:

सन्यास से तात्पर्य क्या है और योग युक्त साधक का आचरण किस प्रकार का होता है, इसका वर्णन श्लोक ५-२ से श्लोक ५-१२ विस्तार से हुआ है।

अतः सन्यास है

  1. बुद्धिं में इन्द्रियों के विषयों का जो रस है, उससे निवृर्ति
  2. राग-द्वेष का त्याग
  3. आकांक्षा का त्याग
  4. बुद्धि से अहंता का त्याग
  5. आसक्ति का त्याग
  6. ममता का त्याग
  7. फल का त्याग

‘नवद्वारे पुरे’- शरीर में दो कान, दो नेत्र, दो नासिकाछिद्र तथा एक मुख, ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं, और मल-मूत्रका त्याग करनेके लिये गुदा और उपस्थ, ये दो द्वार शरीरके निचले भागमें हैं। इन नौ द्वारोंवाले शरीरको ‘पुर’ अर्थात् नगर कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे नगर और उसमें रहने वाला मनुष्य – दोनों अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही यह शरीर और इसमें रहने  का भाव रखने वाला जीवात्मा, दोनों अलग-अलग हैं। जैसे नगर में रहने वाला मनुष्य नगर में होने वाली क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ नहीं मानता, ऐसे ही योगी शरीर में होने वाली क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ नहीं मानता।

बुद्धि में जो अहंता (“मैं कार्यों को करता हूँ”) रहती है उसको और स्पष्टता से भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में व्यक्त करते है कि, अहंता रूपी बुद्धि न तो स्वयं कार्य को करती है और न शरीर से करवाती है।

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