श्रीमद भगवद गीता : २१

योग युक्त, ब्रह्म स्थित साधक अक्षय सुख का अनुभव करता है।

 

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।।५.२१।।

 

जिसका अन्तःकरण बाह्यस्पर्श (बहारी स्पर्श) की आसक्ति से रहित है, वह समता के सुख को प्राप्त होता है। तथा जब वह योग युक्त और ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तब उसको अक्षय सुख का अनुभव होता है। ||५-२१||

 

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक १४ में जिन विषयों को मात्रास्पर्शाः पद से सम्बोधित किया है, उसीको इस श्लोक में बाह्यस्पर्श कहा गया है। प्रकृति के विषयों (बाह्यस्पर्श) में आसक्ति होने से मनुष्य को सुख-दुःख की निरंतरता बनी रहती है। परन्तु जब प्रकृति के विषयों में आसक्ति मिट गयी है तब अन्तःकरण समता में स्थित हो जाती है। समता में स्थित साधक को सात्विक सुख की अनुभूति होती है, जो प्रदार्थ से प्राप्त होने वाले सुख से अलग है।

भोगों से विरक्ति होकर सात्विक सुख मिलने के साथ ‘मैं सुखी हूँ’, ‘मैं ज्ञानी हूँ’, मैं निर्विकार हूँ’ इस प्रकार का सूक्ष्म ‘अहम’ शेष रहता है।

योग युक्त – प्रकृति के विषयों में आसक्ति का त्याग करने पर जिसके सभी कार्य संसार-समाज के लिये होते है वह योग युक्त है। जिसने ममता, अहंता का सर्वथा त्याग कर दिया है, वह योग युक्त है।

जिसके मन में केवल ब्रह्म का ही चिन्तन होता हो, वह ब्रह्म में स्थित है।

अतः योग युक्त, ब्रह्म स्थित साधक अक्षय सुख (एकरस अविनाशी आनन्द) का अनुभव करता है।

सात्विक सुख का उपभोग न करके उसको भी परमात्मा को अर्पण करने से उस ‘अहम’ का सर्वथा आभाव हो जाता है और साधक को नित्य एकरस रहनेवाले अविनाशी आनन्द का अनुभव  हो जाता है।

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