भावार्थ:
कामना के रहने से क्या दुष परिणाम होते है, इसका विस्तार से वर्णन अध्याय २ श्लोक ६२-६३ में हुआ है। अध्याय ३ श्लोक ३७ में कामना और क्रोध को महाशना और महापापी कहा है। अध्याय ३ श्लोक ३७ में कामना को अग्नि के समान कहा है जिसको तृप्त करना कठिन है। अतः इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो साधक इस कामना के वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वह नर है।
इस श्लोक में मनुष्य के लिये ‘नर’ पद का प्रयोग हुआ है। कारण की मनुष्य को एक अलौकिक विवेक प्राप्त है। यह विवेक पशु-पक्षी आदि योनियों में भी रहता है, परन्तु यह विवेक केवल शरीर-निर्वाह मात्र के लिये ही होता है। मनुष्य को यह विवेक शरीर और शरीरी में ठीक-ठीक भेद करने के लिये दिया गया है। परन्तु भोग और संग्रह में फँसा मनुष्य का विवेक ढका रहता है, जिसके कारण वह भी पशु (काम-क्रोध) की तरह आचरण करता है। अज्ञान के द्वारा जिनका ज्ञान ढका हुआ है, ऐसे मनुष्यों को भगवान ने इसी अध्याय ५ श्लोक १५ में जन्तु (जन्तवः) कहा है। भाव यह है कि जो काम-क्रोध के वश में हैं, वे मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं।
अतः मनुष्य को चाहिये कि वह इस विवेक को महत्व देकर वह राग-दुवश, काम-क्रोध आदि विकारों को सर्वथा समाप्त करे। भगवान ‘इह’ पद से मनुष्य को सावधान करते हैं कि अभी उसे ऐसा दुर्लभ अवसर (मनुष्य-शरीर) प्राप्त है, जिसमें वह काम-क्रोध पर विजय प्राप्त करके सदा के लिये सुखी हो सकता है।
मृत्यु का कुछ पता नहीं कि कब आ जाय, अतः सबसे पहले काम-क्रोध के वेग को सयंमित कर लेना चाहिये।
इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष रहने से काम-क्रोध का वेग उत्पन्न होता है और उसको सह लेने से (सत्ता न देने से) मनुष्य योगी है और सुखी है।
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