श्रीमद भगवद गीता : २४

अन्तःसुख, अन्तरारामः, अन्तज्योतिः योगी निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त है।

 

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।।५.२४।।

 

जो मनुष्य केवल अन्तरात्मा में सुखवाला है तथा जो अन्तरात्मा में रमण करनेवाला है और अन्तरात्मा ही जिसकी ज्योति प्रकाश है, वह ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करनेवाला योगी निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है। ||५-२४||

 

भावार्थ:

जिनको प्रकृति जन्य पर्दाथों में सुख प्रतीत नहीं होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मा में ही सुख मिलता है, ऐसे साधक को यहाँ ‘अन्तःसुख:’ कहा गया हैं। परमात्मतत्व के सिवाय कहीं भी उसकी सुख-बुद्धि नहीं रहती। परमात्मतत्व में सुख का अनुभव उसे हर समय होता है; क्योकि उसके सुख का आधार प्रकृति पर्दाथों का संयोग नहीं होता।

जो इन्द्रियों के विषय में रमण नहीं करता, प्रत्युत केवल परमात्मतत्व में ही रमण करता है, और व्यवहारकाल में भी जिसका एकमात्र परमात्मतत्व में ही व्यवहार हो रहा है, ऐसे साधक को यहाँ ‘अन्तरारामः’ कहा गया है।

एकांत काल में जो संसारिक विषयों का चिन्तन नहीं करता और व्यवहार काल में चिन्तन केवल क्रिया विधि का लेकर के होता है वह योगी अन्तरारामः है। अन्तरारामः योगी कार्य की सिद्धि-असिद्धि की कामना नहीं करता। फल से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता। एकांत काल में चिन्तन केवल परमात्मा का होता है।

इन्द्रियजन्य ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान आदि जितने भी सांसारिक ज्ञान कहे जाते हैं, उन सबका प्रकाशक और आधार परमात्मतत्व है। जिस साधक को इस सत्य का ज्ञान हर समय जाग्रत रहता है, उसे यहाँ ‘अन्तज्योतिः’ कहा गया है।

‘ब्रहानिर्वाणम’ – पद का अर्थ है – जिसमें कभी कोई हल चल हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं – ऐसा निर्वाण अर्थात शान्त ब्रहा।

अतः जो कामना रहित है, भोग का त्यागी है, आसक्ति रहित है, अहंता रहित है, मन में चिन्तन केवल परमात्मा का है, तत्व ज्ञानी है, वह संसारिक कार्य करता हुआ भी निर्वाण परम शान्ति को प्राप्त होता है। अन्तःकरण की परम शान्ति ही ब्रह्मा की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति है।

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