श्रीमद भगवद गीता : २५

संशय रहित, संयमित और कर्तव्य परायण, दोष रहित होकर निर्वाण को प्राप्त है।

 

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।।५.२५।।

 

जिनका अन्तःकरण संयमित है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। ||५-२५||

 

भावार्थ:

जिनके संपूर्ण संशय मिट गए हैं:

अध्याय ४ श्लोक ४० एवं अध्याय ४ श्लोक ४१ में कहा गया है की संशय युक्त व्यक्ति का पतन हो जाता है। अतः विवेक ज्ञान के द्वारा साधक को सारे संशय को मिटा कर, परमात्मतत्व (अपना कल्याण) कि प्राप्ति का दृढ़ निश्चय करना आवश्यक है।

संपूर्ण प्राणियों के हित में रत:

योग की सिद्धि में व्यक्तितत्व (शरीर) का अभिमान मुख्य बाधक है। इस व्यक्तितत्व के अभिमान को हटाने के लिये सम्पूर्ण प्राणियों के हित का भाव होना आवश्यक है।

वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, साधन-पद्धति आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों के हित में स्वाभाविक ही रति होनी चाहिये कि सबको सुख पहुँचे, सबका हित हो, कभी किसी को किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो। कारण कि प्राणीमात्र के हित में प्रीति होने से व्यक्तिगत स्वार्थ भाव सुगमता से नष्ट हो जाता है।

यह विवेक की बात है कि बाहर से भिन्नता रहने पर भी भीतर से एक परमात्मतत्व ही समान रूपसे सबमें परिपूर्ण है।

इस श्लोक से पुनः स्पष्ट हो जाता है कि योग सिद्धि कर्मों का त्याग नहीं है। साधक को निश्चित रूप से अपने जीवन को संपूर्ण प्राणियों के हित के लिये लगा देना चाहिये।

शरीर-मन-बुद्धि-इंद्रियों सहित वश में होना:

संशय मिटने पर, और समाज एवम संसार की सेवा में रत रहने से, शरीर-मन-बुद्धि-इंद्रियों को वश में करने में सुगमता आती है। कारण की शरीर-मन-बुद्धि-इंद्रियों से माना हुआ सम्बन्ध ही सम्पूर्ण दोषों का हेतु है। अतः प्रकृति और उसके कार्य शरीर-मन-बुद्धि-इंद्रियों को वश में करके अपने को अलग अनुभव करने से साधक में निर्विकारता स्वतः आ जाती है और उसके सारे दोष नष्ट हो जाते है।

निर्वाण ब्रह्मा को प्राप्त होते हैं:

साधक जीवन काल में ही जीवन से मुक्त हो कर परम् आनन्द का अनुभव करता है।

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