श्रीमद भगवद गीता : ०५

सांख्य और कर्म योग, इन दोनों में कर्म तो करने ही है।

 

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५.५।। 

 

सांख्य (ज्ञान) के द्वारा जिस तत्त्व को प्राप्त किया जाता है, योग के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्य और योग को फलरूपमें एक देखता है, वही ठीक देखता है। ||५-५||

भावार्थ:

मनुष्य शरीर क्या है, इसके होने का कारण क्या है, सृष्टि, प्रकृत्ति का विज्ञान क्या है, सृष्टि के होने में मूल तत्व क्या है, मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है, कर्ता, कारण और उपकरण कोन है? इन सब प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करना ज्ञान (सांख्य) प्राप्त करना है।

ज्ञान को प्राप्त करने की जी प्रक्रिया है वह सांख्य योग है। इस ज्ञान को प्राप्त करने पर साधक को ज्ञात हो जाता है कि शरीर के द्वारा किये जाने वाले कार्य का कर्ता वह (बुद्धि की अहंता) नहीं, अपितु मनुष्य की प्रकृति है, परमात्मतत्व कारण है। परन्तु पूर्ण ज्ञान न होने के कारण साधक इस तत्व ज्ञान से यह समझ लेता है की जब कर्ता वह नहीं है तो उसको कुछ कार्य करने को भी है। अतः वह कार्यों का त्याग ही सांख्य योग की सिद्धिं मान लेता है।

सांख्ययोग की पूर्ण सिद्धिं के लिये साधक को कर्ता (अहंता) भाव का त्याग कर के सभी प्राप्त कार्य (कर्तव्य) को निश्चित रूप से करना चाहिये।

योग में साधक के सभी कार्य स्वयं के लिये न हो कर प्रकृति, संसार, समाज के कल्याण के लिये होते है। अथार्त वह जीवन के सभी कार्यों को करता है और उन कार्यों से प्राप्त फल का उपभोग केवल अपने जीवन निर्वाह के लिये करता है। शेष फल को वह समाज कल्याण के लिये अर्पित कर देता है। इस योग प्रक्रिया में बुद्धि की अहंता (मैं करता हूँ) रह जाती है, जिसका त्याग तत्व ज्ञान प्राप्त (सांख्ययोग) करने से होता है। अहंता का त्याग होने पर  ही योग की पूर्ण सिद्धि है।

अतः भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि सांख्य (अहंता का त्याग) और कर्म (संसार के कर्तव्यों को करना) ही योग सिद्धि का फल (अन्तः करण में समता का स्थित होना) है।

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