श्रीमद भगवद गीता : ०७

योगयुक्त कर्म करते हुए भी कर्म से लिप्त नहीं होता।

 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।५.७।। 

 

जिसका अन्तःकरण संयमित एवं निर्मल है, जिसका शरीर अपने वशमें है ऐसा योग युक्त योगी सभी प्राणियों और स्वयं में परमात्मा को अनुभव करता है, और वह कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता। ||५-७||

 भावार्थ:

योग युक्त साधक वह है, जिसने योग साधना में सिद्धि प्राप्त कर ली है।  योग युक्त: (योग में स्थित) साधक का आचरण किस प्रकार का होता है, उसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

जितेन्द्रिय: जो साधक सुनकर, छूकर, देखकर, खाकर और सूँघकर न तो प्रसन्न (राग) होता है और न खिन्न (द्वेष) होता है, उसे जितेन्द्रिय कहा गया है। अर्थात योग युक्त साधक इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण तो करता है, परन्तु उन विषयों से राग-द्वेष नहीं होता, अन्त:करण में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। अतः उसीकी इन्द्रियों संयमित है।

इन्द्रियों के विषयों के प्रति राग-द्वेष रहने से ही अन्तःकरण में मलिनता आती है। इन्द्रियों के विषयों में राग होने से कामना उत्पन्न होती है, जो सारे सुख-दुःख का कारण है। और इन्द्रियों के विषयों में दुवश होने से साधक अपने कर्तव्य-कर्म से अचुत हो जाता है।

राग-द्वेष रहित होकर विषयों का सेवन करने से साधक का अन्तःकरण निर्मलता को प्राप्त होता है।

विशुद्धात्मा: जिसका अन्त:करण समता से युक्त है, विषमता से रहित है। जिसका अन्त:करण शांत है, उद्वेग से रहित है। जिसका अन्त:करण निर्मल है, विकार से रहित है, वह विशुद्धात्मा है। श्लोक २-६४ में ‘विशुद्धात्मा’ पद के लिये ‘विधेयात्मा’ पद आया है।

योग युक्त साधक जीवन निर्वाह के लिये सभी कार्यों को करता है, संसार की सेवा हेतु प्राप्त कर्तव्यों को शीघ्रता से करता, और उन कार्यों को सफल बनाने के लिये स्वयं में जो भी क्षमता एवं योग्यता है उस का ठीक प्रकार प्रयोग करता है। परन्तु उन कार्यों की सिद्धि-असिद्धि की कामना नहीं करता, उनसे स्वयं के लिये प्राप्त फल की कामना नहीं करता। उन कार्यों में किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखता और न ही उसमें अहंता करता है। अतः साधक संसार के कार्य करता हुआ भी उनसे उदासीन एवं निर्लिप्त रहता है। यहा उदासीनता कार्यों के प्रति नहीं है अपितु कार्य से जो माना हुआ सम्बन्ध (सिद्धि, फल एवं अहंता) है उससे उदासीनता है।

जिसका अन्त:करण समता से युक्त है, शांत है, निर्मल है वह विशुद्धात्मा है।

विजितात्मा: जो अपने माने हुये शरीर से ममता नहीं करता, जो आलस्य-प्रमाद से रहित है, वह विजितात्मा है।

योग युक्त साधक प्राप्त कर्त्तव्यों को करने में किसी प्रकार का आलस्य नहीं करता और उनको तत्परता से कुशल पूर्वक करता है। कार्य और परिस्थिति शरीर के लिये कितनी भी कष्ट प्रद क्यों न हों, वह उनको करने से बचता नहीं। वह अपना जीवन और समय प्रमाद में व्यर्थ नहीं करता।

सर्वभुतात्मभूतात्मा:

जो अपने माने हुए शरीर का कारण परमात्मा को देखता है। अर्थात जो स्वयं में परमात्मा को देखता है, और उसी परमात्मा को सभी प्राणियों में देखता है, वह सर्वभुतात्मभूतात्मा है। ऐसा साधक सभी प्राणियों और स्वयं में पूर्ण रूप से एकता देखता है।

योग युक्त साधक जब सभी प्राणियों में और माने हुये स्वयं में केवल एक परमात्मा की ही सत्ता अनुभव करता है, तब वह प्राणियों से न राग-द्वेष करता है, न ईर्ष्या करता है और न ही आकांक्षा करता है ।

योग युक्त साधक के सभी कार्य दूसरों की सेवा के लिये ही होते है और वह उन कार्यों में अहम (मैं करता हूँ) भाव नहीं रखता। वह अन्यों को सुखी देखकर प्रसन्न होता है और दुःखी को देख कर करुणित होता है।

अतः योग युक्त साधक,  जितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा, विजितात्मा, सर्वभुतात्मभूतात्मा- इन चार लक्षणों से युक्त होता है। वह संसार के सभी कार्यो को करता हुआ भी संसार से लिप्त नहीं होता।

श्लोक के सन्दर्भ में:

दूसरों के सुख में प्रसन्ता और दुःख में करुणा में एक विलक्षण रस है। वह रस क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद करके जीवको परमात्मस्वरूप नित्य रसके साथ अभिन्न करा देता है।

योग की सिद्धि के लिये, सम्पूर्ण गीता में भगवान श्री कृष्ण का, अन्तःकरण को सयंमित करने पर विशेष आग्रह है।

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