भावार्थ:
बहुत प्रकार के जन्मों में से, मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है, क्योकि मनुष्य को कार्य कुशलता और विवेक प्राप्त है।
कार्य कुशलता और विवेक से युक्त मनुष्य का जन्म हुआ है, सृष्टि-प्रकृति-समाज की संरक्षण और उन्नति के लिये। (अध्याय ३ श्लोक १० एवं ११)
परन्तु मनुष्य आसक्ति वश भोग में लग जाता है और अधम गति को प्राप्त होता है। ऐसे मनुष्य को भगवान श्रीकृष्ण ने चोर (अध्याय ३ श्लोक १२), पापी (अध्याय ३ श्लोक १३) एवं अघायु (मनुष्य जीवन को व्यर्थ करने वाला) कहा है। (अध्याय ३ श्लोक १६)
अतः कुछ ही मनुष्य योग आरूढ़ होते है। उनमें से भी कुछ ही योग में स्थित हो पाते है।
योग में स्थित होना, अर्थात परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त होना अति दुर्लभ स्थिति है।
यहाँ ‘दुर्लभ’ पद स्थिति की विशेषता के लिये आया है, न की कठिनता के लिये। कारण कि अध्याय ४ श्लोक १० में भी भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि “बहुत-से साधक मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं”।
अतः ऐसा नहीं है कि इस दुर्लभ स्थिति के लिये प्रयत्न नहीं करे। अपितु मनुष्य जन्म की सार्थकता इस विशेष स्थिति को प्राप्त करने में है।
मनुष्य जन्म को प्राप्त होने की दुर्लभता परमात्मा विधित है। परन्तु परमात्मा स्वरूप होने की दुर्लभता, मनुष्य की साधना से सम्भव है। इसलिये मनुष्य निश्चित रूप से उसको प्राप्त करने के लिये साधना करे।
इस श्लोक में “मेरे शरण होना” के दो भाव है।
प्रथम – केवल परमात्मा की सत्ता को मानना, अनुभव करना।
द्वितीय – परमात्मा की सृष्टि (यज्ञ) के लिये कार्य (कर्तव्य कर्म) करना।
योग साधना से अन्यथा सब व्यर्थ है वह भगवान श्री कृष्ण आगे के श्लोकों में वर्णन करते है।
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