श्रीमद भगवद गीता : अध्याय १०

०१ - ०९ परमात्मतत्व को किस प्रकार जाने, इस योग साधना का वर्णन

।।१०-१।। श्रीभगवान् ने कहा: हे महाबाहो! पुन: तुम मेरे परम वचनों का श्रवण करो, जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामना से कहूँगा; क्योंकि तुम मेरे में अत्यन्त प्रेम रखते हो।
।।१०-२।। मेरे उत्पत्ति होने के कारण को न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन; क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ। ।।१०-२।।
।।१०-३।। जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, अर्थात् अनुभव करता है, वह मनुष्यों में असम्मूढ़ (जानकार) है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। ।।१०-३।।
।।१०-४।। ।।१०-५।। बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भाव, अभाव, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश – प्राणियों के ये अनेक प्रकार के और अलग-अलग (बीस) भाव मेरे से ही होते हैं।
।।१०-६।। सात महर्षि और उनसे भी पूर्वमें होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु, – ये सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, और मेरे में भाव (श्रद्धाभक्ति) रखनेवाले हैं, जिनसे संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।
।।१०-७।। जो मनुष्य मेरी इन विभूतियों को और योग को तत्त्व से जानता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानता है, अविकम्प योग (अर्थात् निश्चल योग) से युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
।।१०-८।। मैं संसार मात्र का प्रभव (मूलकारण) हूँ, और मुझ से ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है, ऐसा मेरे को मान कर मेरे में ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं।
।।१०-९।। मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।

१२ - १८ भगवान के दुवारा अपनी विभूतियों और योग का वर्णन

।।१०-१२।। ।।१०-१३।। अर्जुन ने कहा: परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं – ऐसा सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
।।१०-१४।। हे केशव! मेरेसे आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके प्रकट होनेको न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।
।।१०-१५।। हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगत्पते! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।
।।१०-१६।। जिन विभूतियोंसे आप इन सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियोंका सम्पूर्णतासे वर्णन करनेमें आप ही समर्थ हैं।
।।१०-१७।। हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ? और हे भगवन्! किन-किन भावोंमें आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किन-किन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ?
।।१०-१८।। हे जनार्दन! अपनी योग शक्ति और विभूति को पुन: विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है।

१९ - ४२ भगवान के दुवारा अपनी विभूतियों और योग का वर्णन

।।१०-१९।। श्रीभगवान् ने कहा: हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेपसे) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।
।।१०-२०।। हे गुडाकेश (निद्राजित्)! सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।
।।१०-२१।। मैं अदितिके पुत्रोंमें विष्णु (वामन) और प्रकाशमान वस्तुओंमें अंशुमान् (किरणोंवाला) सूर्य हूँ। मैं मरुतों में मरीचि हूँ और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ।
।।१०-२२।। मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में वासव (इन्द्र) हूँ; मैं इन्द्रियों में मन और प्राणियों में चेतना (ज्ञानशक्ति) हूँ।
।।१०-२३।। मैं (ग्यारह) रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धनपति कुबेर (वित्तेश) हूँ; (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु हूँ।
।।१०-२४।। हे पार्थ! पुरोहितोंमें मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।
।।१०-२५।। मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ।
।।१०-२६।। मैं समस्त वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ; मैं गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ।
।।१०-२७।। घोड़ोंमें अमृतके साथ समुद्रसे प्रकट होनेवाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेको, श्रेष्ठ हाथियोंमें ऐरावत नामक हाथीको और मनुष्योंमें राजाको मेरी विभूति मानो।
।।१०-२८।। मैं शस्त्रों में वज्र और धेनुओं (गायों) में कामधेनु हूँ, प्रजा उत्पत्ति का हेतु कन्दर्प (कामदेव) मैं हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।
।।१०-२९।। मैं नागों में अनन्त (शेषनाग) हूँ और जल देवताओं में वरुण हूँ; मैं पितरों में अर्यमा हँ और नियमन करने वालों में यम हूँ।
।।१०-३०।। दैत्योंमें प्रह्लाद और गणना करनेवालोंमें काल मैं हूँ । पशुओंमें सिंह और पक्षियोंमें गरुड मैं हूँ।
।।१०-३१।। मैं पवित्र करने वालों में वायु हूँ और शस्त्रधारियों में राम हूँ; तथा मत्स्यों (जलचरों) में मैं मगरमच्छ और नदियों में मैं गंगा हूँ।
।।१०-३२।। हे अर्जुन! सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका (तत्त्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।
।।१०-३३।। अक्षरोंमें अकार और समासोंमें द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षयकाल अर्थात् कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं हूँ।
।।१०-३४।। सबका हरण करनेवाली मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंका उभ्दव मैं हूँ तथा स्त्री-जातिमें कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।
।।१०-३५।। गायी जानेवाली श्रुतियोंमें बृहत्साम और वैदिक छन्दोंमें गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनोंमें मार्गशीर्ष और छः ऋतुओंमें वसन्त मैं हूँ।
।।१०-३६।। मैं छल करने वालों में द्यूत हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं विजय हूँ; मैं व्यवसाय (उद्यमशीलता) हूँ और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ।
।।१०-३७।। मैं वृष्णियों में वासुदेव हूँ और पाण्डवों में धनंजय मैं हूँ। मुनियोंमें वेदव्यास और कवियोंमें कवि शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
।।१०-३८।। मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ और विजयेच्छुओं की नीति हूँ; मैं गुह्यों में मौन हूँ और ज्ञानवानों का ज्ञान हूँ।
।।१०-३९।। हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।
।।१०-४०।। हे परंतप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।
।।१०-४१।। जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा वस्तु है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज-(योग-) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो।
।।१०-४२।। अथवा हे अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है? मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।

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