श्रीमद भगवद गीता : ०८

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।।१०-८।।

 

 

मैं संसार मात्र का प्रभव (मूलकारण) हूँ, और मुझ से ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है, ऐसा मेरे को मान कर मेरे में ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं। ।।१०-८।।

 

भावार्थ:

सृष्टि में जो क्रिया होती दिखती है या क्रिया का जो कर्त्ता दीखता है, उन सब का मूल कारण परमात्मतत्व है। देखने-सुनने में आने वाली समस्त पदार्थ एवं क्रियाएँ का आदि है अन्त है। जो देखता-सुनता है, उस स्वयं का आदि-अन्त है। इस प्रकार जान कर जब समस्त विषमता रूपी भाव समाप्त हो जाते है या केवल परमात्मा के प्रति ही होते है और केवल समता रह जाती है तब वह बुद्धिमान्-बुद्धियुक्त साधक की सभी क्रियाएँ प्रकृति-समाज के लिये होती है। समता प्राप्ति के लिये आश्रय भी केवल परमात्मा का ही रह जाता है।

यहाँ भजन का अर्थ सभी कार्य प्रकृति-समाज की सेवा करने से है।

यहाँ अहं से तात्पर्य परमात्मा का है, मनुष्य रूप में भगवान्  श्री कृष्ण से नहीं है।

‘अहं सर्वस्य प्रभवः’

सृष्टि में जितने भी ग्रह, नक्षत्र है, पृथ्वी है,  पृथ्वी के पदार्थ एवं प्राणी है, उन सबके उत्पत्ति के मूल में केवल परमात्मा ही कारण है।

संसार में उत्पत्ति, स्थिति, पालन, संरक्षण, प्रलय, आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जितने भी कार्य होते हैं, उन सबको मूल में ऊर्जा,  शक्ति, सत्ता-स्फूर्ति परमात्मा से ही मिलती है।

अर्थात,  कार्य, कारण, भाव, क्रिया, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिके मूलमें जो तत्त्व है वह परमात्मा ही है।

अतः तत्त्वसे सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है — इस बातको जान लें अथवा मान लें, तो भगवान्के साथ अविकम्प (कभी विचलित न किया जानेवाला) योग अर्थात् सम्बन्ध हो जायगा।

भगवान्से ही सब संसारकी उत्पत्ति होती है और सारे संसारको सत्ता-स्फूर्ति भगवान्से ही मिलती है – इस प्रकार जब साधक  की महत्त्वबुद्धि केवल भगवान्में हो जाती है तो फिर उनका आकर्षण, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम आदि सब भगवान्में ही हो जाते हैं। भगवान्का ही आश्रय लेनेसे उनमें समता, निर्विकारता, स्वतः-स्वाभाविक ही आ जाती हैं।

भगवान्के सिवाय अन्यकी सत्ता ही न मानना, भगवान्को ही सबके मूलमें मानना, भगवान्का ही आश्रय लेकर उनमें ही श्रद्धा-प्रेम करना — यही उनकी बुद्धिमानी है।

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