श्रीमद भगवद गीता : ०३

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल

मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।।१५-३।।

 

 

इस संसार वृक्ष का जैसा रूप देखनेमें आता है, वैसा यहाँ (विचार करनेपर) मिलता नहीं; क्योंकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप अश्वत्थवृक्षको दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्रके द्वारा काटकर। ।।१५-३।।

 

भावार्थ:

अध्याय १५ श्लोक १ में इस संसारवृक्ष को अव्यय अर्थात् अविनाशी कहा गया है। किसी वस्तु के आदि – मध्य और अन्त का ज्ञान दो तरहका होता है। एक आकार से और दूसरा कल पर्यन्त से। यह संसार आकार रूपसे कहाँ से आरम्भ है, कहाँ मध्य है और कहाँ इसका अन्त है, इसका ज्ञान नहीं होता। उसी प्रकार संसार कब से आरम्भ हुआ है, कबतक यह रहेगा और कब इसका अन्त होगा, इसका भी ज्ञान नहीं होता।

संसार से सम्बन्ध मान कर भोगों की तरफ वृत्ति रखते हुए इस संसार का आदि अन्त कभी जानने में नहीं आ सकता। मनुष्यके पास संसार के आदि अन्त का पता लगानेके लिये जो साधन (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) हैं, वे सब संसार के ही अंश हैं। यह नियम है कि कार्य अपने कारणमें विलीन तो हो सकता है? पर उसको जान नहीं सकता। यह वृक्ष परम सत्य के अज्ञान से उत्पन्न होता है। जब तक वासनाओं का प्रभाव बना रहता है तब तक इसका अस्तित्व भी रहता है? किन्तु आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है।

अतः भगवान् कहते हैं कि यद्यपि इस संसारवृक्षके अवान्तर मूल बहुत दृढ़ हैं, फिर भी इनको दृढ़ असङ्गता रूप शस्त्र के द्वारा काटा जा सकता है। अतः तुम इस सम्बन्ध को काट डालो।

किसी भी स्थान, व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति आदि के प्रति मन में आकर्षण, सुखबुद्धि का होना और उनके सम्बन्ध से अपनेआपको बड़ा तथा सुखी मानना पदार्थोंके प्राप्त होने अथवा संग्रह होनेपर प्रसन्न होना, यही सङ्ग कहलाता है। इसका न होना ही असङ्गता है।

 

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