श्रीमद भगवद गीता : १०

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।१५-१०।।

 

 

विषयों को त्यागते हुये, उसमें स्थित हुये अथवा भोगते हुये, गुणों से समन्वित आत्मा को विमूढ़ लोग नहीं देखते हैं; (परन्तु) ज्ञानचक्षु वाले पुरुष उसे देखते हैं। ।।१५-१०।।

 

भावार्थ:

मनुष्य जब किसी विषय को पकड़ता अथवा छोड़ता है, किसी विषय में अपनी स्थित्ति देखता है या विषय का भोग करता है, तब वह सारी क्रिया स्वयं के दुवारा हो रही है ऐसा मानता है। वह यह नहीं जान पाता कि यह सभी क्रिया मनुष्य शरीर की जो प्रकृति-गुण है, उनके कारण है। और यह ही मनुष्य की मूढ़ता है।

परन्तु जिसका विवेक जाग्रत जो गया है वह जानते है की अभी क्रियाओं का कारण  शरीर की प्रकृति-गुण है। वह स्वयं नहीं है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

मनुष्य की इसी मूढ़ता का स्पष्टा से वर्णन अध्याय १३ श्लोक २२ में हुआ है।

मनुष्य को संसार का अनुभव इन्द्रियों से होता है। इन्द्रियाँ संसार की द्रष्टा है। इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण कर, जब विषय मन को प्रस्तुत होते है, तब मन पूर्व संस्कार, आसक्ति, त्रिगुणों के प्रभाव में विषयों के प्रति भाव उत्पन्न करता है। यह भाव बुद्धि के निर्णय को प्रभावित करता है। अतः इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि दुवारा होने वाले कार्य का कारण उनके गुण है। परन्तु मनुष्य की बुद्धि अज्ञानता वश इन सब कार्यों का कारण स्वयं को मान लेती है।

 

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