श्रीमद भगवद गीता : १९

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।।१०-१९।।

 

श्रीभगवान् ने कहा: हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेपसे) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है। ।।१०-१९।।

 

भावार्थ:

भगवान श्री कृष्ण ने अपनी (परमात्मतत्व रूप) की तुलना उन सब विभूतिओं से की है जो अपने-अपने श्रेणी में श्रेष्ठ है। जो सृष्टि चक्र को बनाये रखने में सबसे अधिक प्रभावित करते है; सहायक माने-समझे जाते है। जिनका आचरण सनातन धर्म के अनुरूप है। जो परमात्मा स्वरूप है।

अनेक प्रकार के पदार्थ, प्राणी एवम क्रिया, सभी में जो श्रेष्ठ है, प्रकृति के लिये कल्याण कारक है, वह सब परमात्मतत्व रूप है और उनका उल्लेख श्लोक १०-१९ से १०-४१ में हुआ है।

संसार मात्र में जिस-किसी सजीव-निर्जीव वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, गुण, भाव, क्रिया आदिमें जो कुछ ऐश्वर्य दीखे, शोभा या सौन्दर्य दीखे, बलवत्ता दीखे, तथा जो कुछ भी विशेषता, विलक्षणता, योग्यता दीखे, उन सबको परमात्मतत्व से उत्पन्न हुई जानो। इस प्रकार का वर्णन भगवान श्री कृष्ण श्लोक ४१ में करते है।

सभी श्लोकों में ‘मैं हूँ” पदका प्रयोग करने का तात्पर्य विभूतियों के मूल तत्त्व का लक्ष्य कराने में है कि इन सब विभूतियों के मूल में परमात्मतत्व ही है।

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