श्रीमद भगवद गीता : ०३

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।१०-३।।

 

जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, अर्थात् अनुभव करता है, वह मनुष्यों में असम्मूढ़ (जानकार) है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। ।।१०-३।।

 

भावार्थ:

इस श्लोक में जानना का अर्थ अनुभव करने से है। परमात्मतत्व का अनुभव तब होता है जब विषमता रूपी सारे भाव समाप्त हो जाते है और अन्तःकरण में केवल समता का भाव रहे जाता है।

समता में स्थित होने के लिये पहले परमात्मतत्व को अजन्मा, अनादि और ईश्वर के रूप में मानना होता है और ऐसा मानते हुये विषमताओं का त्याग करना होता है।  विषमताओं का त्याग होने पर जो माना है वह जानने में परिवर्तित हो जाता है।

योग में स्थित रह कर कार्य करने से साधक के सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। योग में स्थित होने का अर्थ है, अहंता-ममता का त्याग, समता की प्राप्ति एवं चिन्तन केवल परमात्मा का।

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