श्रीमद भगवद गीता : ३२

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ।।१०-३२।।

 

 

हे अर्जुन! सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका (तत्त्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ। ।।१०-३२।।

भवार्थ

अन्त:करण में जब पूर्ण रूप से समता का भाव होता है, उस समय स्वयं के होनेपन का जो भाव होता है वह अध्यात्म भाव है। अध्यात्म भाव ही स्व: का शुद्ध चित भाव है। अन्त:करण में नित्य स्थित समता का भाव ही परब्रह्म का प्रकाशक तत्व है। समता भाव से ही परब्रह्म मनुष्य शरीर में व्यक्त होता है। अध्यात्म (समता) एक स्थिति है, जिसको प्राप्त करने का लक्ष्य मनुष्य जीवन का उदेश्य है।

इस समता (अध्यात्म) रूपी उदेश्य को प्राप्त करने के लिये जो विद्या की आवशकता है उस विद्या की प्राप्ति अध्यात्मविद्या प्राप्ति है। अतः संसार में कुछ जानने को अथवा कुछ विद्या प्राप्त करने को है वह केवल अध्यात्मविद्या है।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

 

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय