भावार्थ:
विभूति के तत्व को जानने का अर्थ है कि, जो साधक सृष्टि, प्रकृति, पदार्थ, प्राणी के मूल तत्व, होने वाली क्रियाओं के मूल कारण के विज्ञान को जानता है- परमात्मतत्व को जनता है। मनुष्य के अन्तःकरण उत्तपन्न हो रहे विभिन प्रकार के भाव किनके के कारण मनुष्य विभिन प्रकार का कार्य करता अथवा नहीं करता उसका विज्ञानं और इन भाव भावों को नियमित किस प्रकार करना है – यह योग के तत्व को जानना है।
विभूति और योगको तत्त्वसे जाननेका तात्पर्य है कि संसारमें कारण रूप से परमात्मतत्व का जो कुछ प्रभाव, सामर्थ्य है और उससे कार्यरूपमें प्रकट होनेवाली जितनी विशेषताएँ हैं। जैसे वस्तु, व्यक्ति आदिमें जो कुछ विशेषता दीखनेमें आती है, प्राणियोंके अन्तःकरणमें प्रकट होनेवाले जितने भाव हैं और प्रभावशाली व्यक्तियोंमें ज्ञान-दृष्टिसे, विवेक-दृष्टिसे तथा संसारकी उत्पत्ति और संचालनकी दृष्टिसे जो कुछ विलक्षणता है, उन सबके मूलमें परमात्मतत्व ही है और सबका आदि हूँ। इस प्रकार जो परमात्मतत्व के तत्व को ठीक से मान लेता है, तो फिर वह साधक उन सब विलक्षणताओं (भाव) के मूलमें केवल परमात्मतत्व ही देखता है। उसका भाव केवल समता का ही रह जाता है, व्यक्तियों, वस्तुओंकी विशेषताओँ से होने वाले अन्य भावों में नहीं।
पूर्व श्लोक (अध्याय १० श्लोक ५) में वर्णन किये गए भाव को नियमित कर केवल समता का भाव रहने से साधक योग (समता) से युक्त हो जाता है और समता भाव में आने पर परमात्मतत्व की अनुभूति होती है। इसमें संशय नहीं है।
योग का अर्थ कार्य रूपक है और उससे हर वो कार्य करने से है जिससे साधक समता युक्त होता है।
संसारमें क्रिया और पदार्थ निरन्तर परिवर्तनशील हैं। इनमें जो कुछ विशेषता दीखती है, वह स्थायीरूपसे व्यापक परमात्माकी ही है। जहाँ-जहाँ विलक्षणता, अलौकिकता आदि दीखे, वहाँ-वहाँ वस्तु, व्यक्ति आदिकी ही विलक्षणता माननेसे मनुष्य उसीमें उलझ जाता है और मिलता कुछ नहीं। कारण कि वस्तुओंमें जो विलक्षणता दीखती है, वह उस अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व की ही झलक है, परिवर्तनशील वस्तुकी नहीं। इस प्रकार उस मूल तत्त्वकी तरफ दृष्टि जाना ही उसे तत्त्वसे जानना अर्थात् श्रद्धा से दृढ़ता पूर्वक मानना है।
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