श्रीमद भगवद गीता : ०९

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।१०-९।।

 

 

मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं। ।।१०-९।।

 

भावार्थ:

जिस साधक में इन्द्रियों के विषयों के प्रति राग-दुवेश समाप्त हो गये है। मन की सारी कामनायें समाप्त हो गयी है और चिंतन केवल परमात्मा के प्राप्ति रह गया है वह परमात्मा में चित वाला है।

जो साधक का जीवन, जीने की चाहा केवल परमात्मा के लिये है। जिसने ममता का त्याग कर दिया है। शरीर से होने वाली सभी क्रियाएँ केवल सेवा के लिये है, उस साधक के प्राण अपने परमात्मा को अर्पण है।

परस्पर दो मनुष्य एक-दूसरे में केवल परमात्मा को देखते है। उनमें किसी प्रकार का राग-दुवेश अथवा अहंता का भाव नहीं रहता। उन के बीच का व्यवहार, अदान-प्रदान केवल देने वाला, सेवा भाव का होता है और इस प्रकार जो, जितना प्राप्त है उससे सन्तुष्ट होते हैं और भाव रूप में केवल प्रेम का भाव रहता है।

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