श्रीमद भगवद गीता : ०१

श्री भगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।।१३-१।।

 

श्रीभगवान् ने कहा: हे कौन्तेय! यह शरीर क्षेत्र कहा जाता है और इसको जो प्रकाशित करता है, उसको ज्ञानीलोग, क्षेत्रज्ञ कहते हैं। ।।१३-१।।

भावार्थ:

अध्याय १० श्लोक ११ में जिस प्रकाशमय ज्ञान का प्रकरण चल रहा था, वह ज्ञान क्या है, इसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में करते है।

प्राणी मात्र दो तत्त्वों से बना हैं। एक तत्त्व वह है जो जड़ पदार्थों से बना है, जिसको शरीर कहते है। क्योकि यह शरीर सिमित आकार वाला है, इसलिये भगवान श्रीकृष्ण ने इस शरीर को क्षेत्र कहा है।

दूसरा तत्व है चेतना, जो अव्यक्त है। जड़ पदार्थों रूपी क्षेत्र में इस चेतना की अभिव्यक्ति होने से यह क्षेत्र कार्य करता है और सांसारिक विषयों को जानता है।

क्योकि अव्यक्त चेतनतत्त्व, क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला है।, इसलिये इस तत्व को क्षेत्रज्ञ कहा गया है।

“इदं शरीरं” : शरीर को इदम् (यह) पद देने का अर्थ है कि चेतनतत्व (क्षेत्रज्ञ) जो इस शरीर को प्रकाशित करता है, जिसके द्वारा यह शरीर जानने में आता है, वह क्षेत्रज्ञ – क्षेत्र से अलग है।

 

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