मेरे में अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका होना, एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव होना और जन-समुदायमें प्रीतिका न होना। ।।१३-१०।।
भावार्थ:
साधक को चाहिये कि वह अनन्य योग साधना का पालन करे और केवल परमात्मा प्राप्ति की कामना करे। ऐसा करने से मन मे चिंतन केवल परमात्मा का रहता है।
जब संसार कल्याण के लिये कार्य न हो, जब स्वयं के निर्वाह हेतु कार्य न हो, तब उस एकान्त समय स्वयं को एकान्त में रखना एकान्त भाव है। सांसारिक विषयों के चिंतन का त्याग। व्यक्तियों के प्रति ममता एवं आकर्षण का त्याग। इससे एकान्त में रहने का अभिप्राय है। अपने मनुष्य धर्म का पालन तो आवश्य करना है परन्तु सांसारिक विषयों से सम्बन्ध न बनाना एकान्त भाव है।
मनुष्य प्राय समाज मे, देश मे, संसार मे क्या हो रहा है, कौन सुखी है, कौन दुःखी है यह जानने में रुचि रखता है। सांसारिक विषयों पर विचार-विमर्श करता है। यह सब तब करना चाहिए जब मनुष्य में समर्थ हो, कि वह उस विषय मे समाज कल्याण के लिये अपना योगदान दे सके।
अन्यथा इस प्रकार की मनुष्य समुदाय में प्रीति, रुचि मन मे विषमता ही उत्पन्न करती है, जिसका त्याग करने को इस श्लोक में कहा है।
यह एक तामसिक परवर्ती है।
साधारण न हो अर्थात् व्यर्थ का अन्य मनुष्यो के साथ , समाचार को जानना, उसपे चर्चा करना।
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