भावार्थ:
श्लोक १३-१ से १३-६ तक विज्ञानं का वर्णन हुआ है और श्लोक १३-७ से १३-१० योग साधना का वर्णन हुआ है। उस विज्ञान और योग साधना में सिद्ध हुआ साधक अध्यात्मज्ञान में नित्य-निरन्तर रहता है। तत्त्वज्ञान को शब्दों में परिभाषित करने पर परमात्मतत्व का वर्णन जिस प्रकार किया गया है उस अर्थरूप परमात्मतत्व को अध्यात्मज्ञान में स्थित साधक सब जगह जिस प्रकार कहा गया है उस प्रकार देखता है।
अन्त:करण में जब पूर्ण रूप से समता का भाव होता है, उस समय स्वयं के होनेपन का जो भाव होता है वह अध्यात्म भाव है। अध्यात्म भाव ही स्व: का शुद्ध चित भाव है। अन्त:करण में नित्य स्थित समता का भाव ही परब्रह्म का प्रकाशक तत्व है। समता भाव से ही परब्रह्म मनुष्य शरीर में व्यक्त होता है। अध्यात्म (समता) एक स्थिति है, जिसको प्राप्त करने का लक्ष्य मनुष्य जीवन का उदेश्य है।
स्वयं के होनेपन की जो अनुभूति है, उसको इस श्लोक में अध्यात्मज्ञान पद से कहा है। इस श्लोक में इस अध्यात्मज्ञान स्थिति को प्राप्त कर उसमें नित्य-निरन्तर रहने को कहा गया है।
मनुष्य प्रकृति पदार्थ किस प्रकार का है, उसमें क्रिया किस प्रकार की होती, मनुष्य को इन प्रकृति पदार्थ से सुख किस प्रकार मिले, कामना पूर्ण कैसे हो, यह सब जानने को ही ज्ञान समझता है।
परन्तु भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में कहते है, कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है वह ही ज्ञान है और प्रकृति पदार्थ का ज्ञान अज्ञान है। मनुष्य कोन है, शरीर क्या है, उसमे क्रिया किस प्रकार होती है, इन सबके होने का जो मूल कारण है, उसको जानना ही ज्ञान है। कारण की ऐसा ज्ञान प्राप्त करने से ही मनुष्य स्वयं का और समाज का कल्याण कर सकता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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