श्रीमद भगवद गीता : १२

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।।१३-१२।।

 

जो ज्ञेय है, उस-(परमात्मतत्त्व-) को मैं अच्छी तरहसे कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमृतत्व का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्त्व) अनादि और परम ब्रह्म है। उसकी सत्ता को इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से जाना नहीं जा सकता है। ।।१३-१२।।

 

भावार्थ:

अध्याय १३ श्लोक ५ से अध्याय १३ श्लोक ६ क्षेत्र क्या है इसका वर्णन किया और अध्याय १३ श्लोक ७ से अध्याय १३ श्लोक ११ क्षेत्र में क्रिया किस प्रकार होती है और योग साधना कैसे करनी है, उसमें विकार किस प्रकार के है, ऐसा ज्ञान दिया गया है। अब इस श्लोक से ज्ञेय (परमात्मतत्त्व) जो समस्त सृष्टि का और उसमें हो रही क्रिया का कारण है, उसका वर्णन किया गया है।

पूर्व श्लोक में अध्यात्मज्ञान जिस प्रकार का है उसको जान कर, जो एक समान अनुभूति होती है वह कभी न समाप्त होने वाली अनुभूति है, इसलिये उसको अमृतत्व का अनुभव कहा गया है।

जैसा की पूर्व अध्याय के श्लोकों में भी कहा गया है, परमात्मतत्त्व इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि का विषय न होने के कारण, उसकी सत्ता बुद्धि के विचार से है या नहीं ऐसा कहा नहीं जा सकता।

परमात्मतत्त्व  व्यापकता का कोई अंत नहीं है। सम्पूर्ण संसार परमात्मतत्त्व से उत्पन्न होता है, उसीमें रहता है और अन्तमें उसीमें लीन हो जाता है। परन्तु परमात्मतत्त्व उस उत्पन्न होने, अन्त होने में और उत्पन्न-अन्त, मध्य, बिना विकार हुए एक रूप से विद्यमान रहता है। अतः वह अनादि कहा जाता है।

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