श्रीमद भगवद गीता : १३

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।

सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।।१३-१३।।

 

वे (परमात्मा) सब जगह हाथों और पैरोंवाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखोंवाले तथा सब जगह कानोंवाले हैं। वे संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं। ।।१३-१३।।

 

भावार्थ:

प्रकृति में  जितने प्रकार के, और एक प्रकार के जितने भी, प्राणी, पदार्थ देखे जाते, उन सब का जो मूल तत्व है, वह सब (प्राणी, पदार्थ) में सामान रूप से व्याप्त परमात्मतत्त्व ही है। उन प्राणियों में जो अनेक प्रकार की क्रिया होती देखाई देती है; नेत्र, मुख, हाथ, पैर से प्राणियों द्वारा अनेक प्रकार क्रिया होती जान पड़ती है, उन सबका कारण रूप केवल परमात्मतत्त्व ही है।

परन्तु प्राणी-पदार्थ के होने का और उनमे होने वाली क्रिया का कर्ता परमात्मतत्त्व नहीं है। प्राणी-पदार्थ के होने के कारण उनके गुण है जो प्रकृति से प्राप्त है।

मनुष्य को यह सब (प्राणी, प्राणी के अंग) अलग-अलग जान पड़ते है, और उन अलग-अलग से सम्बन्ध मान कर अलग-अलग भाव उत्पन्न करता है। परन्तु मूल में इन सब का कारण एक परमात्मतत्त्व है।

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