श्रीमद भगवद गीता : १७

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।।१३-१७।।

 

वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियोंका भी ज्योति और अज्ञानसे अत्यन्त परे कहा गया है। वह ज्ञानस्वरूप, जाननेयोग्य, ज्ञान(साधन-समुदाय) से प्राप्त करनेयोग्य और सबके हृदयमें विराजमान है। ।।१३-१७।।

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में व्यक्त किया है की पदार्थ के सूक्ष्म तत्व अणु में जो क्रिया है, उस क्रिया के करने में जो ज्ञान अणु को चाहिये, वह उसका कहा से प्राप्त है?

प्राणियों में होने वाली क्रिया का कारण अंग है। अंग से होने वाली क्रिया का कारण, एक स्तर से दूसरे स्तर पर जाते जाने पर अणु पर  रुकता है। अणु की बुद्धिमता, ज्ञान उसका कहा से प्राप्त है?

भगवान श्री कृष कहते है की सूक्षम से भी सूक्षम ज्ञान, प्रकाशक परमात्मतत्त्व है। परमात्मतत्त्व हर प्रकाश (ज्ञान, बुद्धिमता) का भी प्रकाशक है। उस परमात्मतत्त्व में कभी अज्ञान नहीं आता। वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है और उसी से सबको प्रकाश मिलता है। अतः उस परमात्मतत्त्व को ज्ञान अर्थात् ज्ञानस्वरूप कहा गया है। ज्ञान का भी ज्ञान कहा गया है। और यह ज्ञान सब में विध्यमान है।

अतः परमात्मतत्त्व तत्व में मूल तत्व है और उसकी सम्पूर्ण ब्रमांड मे व्याप्त है। और ज्ञान में वह सबका प्रकाशक है और पूर्ण ब्रमांड मे विध्यमान है।

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