श्रीमद भगवद गीता : १९-२०

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।

विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ।।१३-१९।।

 कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।

पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।।१३-२०।।

 

प्रकृति और पुरुष, दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों तथा गुणोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न समझो। कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओं को उत्पन्न करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखोंके भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है। ।।१३-१९।। ।।१३-२०।।

 

भावार्थ:

क्षेत्र की मूल प्रकृति क्या है और उसका कार्य क्या है – इसका वर्णन अध्याय १३ श्लोक ५, अध्याय १३ श्लोक १४, अध्याय १३ श्लोक १६ मे विस्तार से हुआ है। अध्याय १३ श्लोक ५ मे मूल प्रकृति को अव्यक्त कहा गया है और इस श्लोक मे अनादि कहा गया है।

क्षेत्र की मूल प्रकृति ही क्षेत्र मे स्थित सभी विकार और गुणों का कारण है।

ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ के जो कार्य है और जिन कारणों से यह क्रिया होती है, उनके होने में प्रकृति ही कारण है। मन में उत्पन्न होने वाले भावों का हेतु भी प्रकृति है। अतः कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति कारण है।

पुरुष : मनुष्य शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ के द्वारा हो रही क्रिया का जो द्रष्टा है, उस चेतन तत्त्व को यहा पुरुष कहा गया है। यह पुरुष मनुष्य की सत्त्ता होने का प्रकाशक है।  इस सत्त्ता का ज्ञान बुद्धि को पुरुष (चेतन तत्व) से प्राप्त होता है। परन्तु, जिस प्रकार बाहरी संसार का ज्ञान बुद्धि इन्द्रियों के दुवारा होता है, सत्त्ता होने का ज्ञान कहा से प्राप्त हुआ, इसका ज्ञान नहीं होता, और वह स्वयं का कार्य मान लेता है। यह ही बुद्धि की अज्ञानता है, अहंता है।

इस श्लोक में पुरुष को भी अनादि कहा है। कारण कि परमात्मतत्व प्राणी मे पुरुष रूप मे विभक्त (अध्याय १३ श्लोक १६) हुआ जान पड़ता है।

इस श्लोक मे पुरुष (चेतन तत्त्व) को सुख-दुःख का भोक्ता कहा गया है। पुरुष भोक्ता किस कारण से – (अध्याय १३ श्लोक २१) और किस प्रकार से – (अध्याय १३ श्लोक २२) मे हुआ है।

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