श्रीमद भगवद गीता : ०२

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।१३-२।।

 

हे भारत! तुम समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही (वास्तव में) ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। ।।१३-२।।

भावार्थ:

इस प्रकार पूर्व श्लोक में वर्णित हर प्राणी के दो तत्व है क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। परन्तु अलग-अलग दिखने वाले सभी प्राणिओं में जो अव्यक्त क्षेत्रज्ञ है, वह एक ही है और वह एक रूप परमात्मतत्व है।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते है कि तुम क्षेत्र क्या है, किस प्रकार कार्य करता है और क्षेत्रज्ञ क्या है, इसको जानो। क्योकि मनुष्य के लिये क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को सही प्रकार से जानना, ही वास्तविक ज्ञान है।

 

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