श्रीमद भगवद गीता : २१

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।।१३-२१।।

 

प्रकृति से सम्बन्ध के कारण ही पुरुष प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है। गुणों का सङ्ग ही सदसत् योनियों में जन्म और इस संसार का कारण है। ।।१३-२१।।

 

भावार्थ:

पुरुष क्षेत्र की चेतना-द्रष्टा रूप है, परन्तु पुरुष क्षेत्र से सम्बन्ध मान कर क्षेत्र के प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है। भोक्ता कितने प्रकार, और किस प्रकार से है, इसका वर्णन अध्याय १३ श्लोक २२ हुआ है।

आगे भगवान श्री कृष्ण कहते है कि प्राणी के मूल प्रकृति से प्राप्त गुण ही सदसत् योनियाँ में होने वाले जन्म और संसार चक्र का कारण है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

सदसत् योनियाँ —  प्रकृति में मनुष्य के अतिरिक्त जितनी भी योनि है, वह सब केवल जीवन निर्वाह मात्र कार्य करने की क्षमता रखते है और प्रकृति से केवल जीवन निर्वाह के लिये ही पदार्थ ग्रहण करते है। उनमे सिमित सामर्थ्य होता है। साथ ही सृष्टि स्वयं को क्रिया शील बनाये रखने के लिये उनसे योगदान लती है। उनकी स्वयं की कोई इच्छा-अनिच्छा नहीं होती।

मनुष्य योनि में मनुष्य को परमात्मा से विवेक और अथाह सामर्थ्य प्राप्त है। अब यह मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है कि वह प्राप्त सामर्थ्य का उपयोग प्रकृति-समाज एवम स्वयं के कल्याण के लिये करे या पदार्थों को ग्रहण कर उनका भोग करने में सामर्थ्य और जीवन को नष्ट करे। प्राप्त सामर्थ्य में राग-द्वेष, कामना, आसक्ति और ममता रूपी आकर्षक विकार भी प्राप्त है, जो मनुष्य को सुख-दुःख रूपी बन्धन में बांधते है। पुनः यह मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है कि वह इन विकारों के वशीभूत होकर सुख-दुःख रूपी बन्धन में बन्ध कर सामर्थ्य वान जीवन को नष्ट करे या इन विकारों का त्याग कर, सुख-दुःख रूपी बन्धन से मुक्ति पाकर,परमात्मा को प्राप्त करे। कारण कि प्रकृति पदार्थ, शरीर विनाशी है और राग-द्वेष, आसक्ति और ममता अनित्य और कामना अनंत है। परमात्मा एक, नित्य रहने वाले और अविनाशी है।

कियुकी मनुष्य योनि ही परमात्मा को प्राप्त कर सकती है इस लिये उसको सत् योनि कहा गया है और बाकि सब को सद योनि कहा गया है।

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