श्रीमद भगवद गीता : २२

उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।।१३-२२।।

 

यह पुरुष प्रकृति-(शरीर-) के साथ सम्बन्ध रखनेसे ‘उपद्रष्टा’, उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देनेसे ‘अनुमन्ता’, अपनेको उसका भरणपोषण करनेवाला माननेसे ‘भर्ता’, उसके सङ्गसे सुखदुःख भोगनेसे ‘भोक्ता’, और अपनेको उसका स्वामी माननेसे ‘महेश्वर’ बन जाता है। परन्तु स्वरूपसे यह पुरुष ‘परमात्मा’ कहा जाता है। यह देहमें रहता हुआ भी देहसे पर (सम्बन्ध-रहित) ही है। ।।१३-२२।।

 

भावार्थ:

उपद्रष्टा’: मनुष्य को संसार का अनुभव इन्द्रियों से होता है। इन्द्रियाँ संसार की द्रष्टा है। परन्तु पुरुष क्षेत्र के अतिशय समीप होने के कारण इन्द्रियों के दृश्यों को स्वयं का दृश्य मान लेता है। स्वयं द्रष्टा न होने पर भी स्वयं को द्रष्टा मानना के कारण पुरुष को उपद्रष्टा की संज्ञा दी गयी है।

अनुमन्ता‘: इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण कर, जब विषय मन को प्रस्तुत होते है, तब मन पूर्व संस्कार, आसक्ति, त्रिगुणों के प्रभाव में विषयों के प्रति भाव उत्पन्न करता है। उन भाव से सम्बन्ध मानने के कारण पुरुष उन भाव का अनुमोदन करता है और बुद्धि के निर्णय को प्रभावित करता है। सत्य यह है कि पूर्व मे सम्बन्ध मानने से जो संस्कार इंगित हुये है और अब वर्तमान में आसक्ति, त्रिगुण के प्रभाव मे भाव की उत्पति है और उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। उत्पन्न भाव का त्याग करने से अनुमन्ता जाती रहती है।

भर्ता‘: भूख लगना, प्यास लगना, यह शरीर के भाव रूप कार्य है जिससे अन्न-जल ग्रहण कर शरीर का पालन पोषण हो सके। उसी प्रकार शरीर मे शीत-उष्ण का भाव उत्पन्न होता है, शरीर का संरक्षण करने के लिये। इस शरीर के कार्य का कारण-प्रकाशक मूल प्रकृति है। यह भाव स्वतः उत्पन्न होते है और बुद्धि अन्य प्राणीओं के समान स्वतः ही उसका उपाय करती है।

परन्तु पुरुष शरीर के साथ तादात्म्य करके शरीरका पालनपोषण एवं संरक्षण रूपी कार्यों को स्वयं का कार्य मानता है। अतः पुरुष को भर्ता कहा गया है।

भोक्ता‘: इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख इन चार विकारों का वर्णन अध्याय १३ श्लोक ६ मे हुआ है। यह विकार शरीर निर्वाह के लिए अनिवार्य है, परन्तु पुरुष इन विकारो से सम्बन्ध मान कर भोक्ता बन जाता है।

महेश्वर‘: इन्द्रियों के दृश्य को स्वयं का दृश्य मान कर द्रष्टा; मन मे उतपन्न भाव को स्वयं के भाव मान कर अनुमन्ता; शरीर के कार्यों को स्वयं के कार्य (कर्ता) मान कर भर्ता; एवं शरीर और प्राकृतिक पदार्थों से ममता कर, पुरुष स्वयं को स्वामी (ईश्वर) मानता है। इसलिये उसको महेश्वर कहा गया है।

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