श्रीमद भगवद गीता : २३

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ।।१३-२३।।

 

इस प्रकार पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको जो मनुष्य अलग-अलग जानता है, वह वर्तमान के कर्तव्यों को करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता। ।।१३-२३।।

 

भावार्थ:

अतः भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो मनुष्य, प्राणी की मूल प्रकृति और उससे प्राप्त गुणों को और पुरुष (अहंता, चेतन तत्व) के अंतर् को ठीक प्रकार से जनता है, उसको जानने के लिये योग करता है, वह वर्तमान मे प्राप्त सभी कर्तव्यों को करता हुआ भी संसार के बंधनों से नहीं बंधता। कारण की सम्बन्ध रहित होने से नए संस्कार नहीं बनते।

विकार, कार्य, करण, विषय आदि रूपसे जो कुछ भी संसार दीखता है, वह सब प्राणी के मूल प्रकृति और उसके गुणोंका कार्य है, स्वयं का नहीं है। ऐसा यथार्थरूपसे अनुभव कर लेना ही परमात्मतत्त्व का अनुभव करना है।

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