भावार्थ:
साधक जब मन को इन्द्रियों के विषयों के चिंतन का निरोध करके एकाग्र भाव से केवल परमात्मा का चिन्तन करता है, तब साधक शुद्ध हुए अन्तःकरण से परमात्मतत्त्व का अनुभव करता है। एकाग्र भाव से इस प्रकार परमात्मा का चिन्तन करना ध्यान योग है।
अन्तःकरण में केवल परमात्मा का चिन्तन हो, ऐसी स्थिति को प्राप्त करने के लिये, मनुष्य साधना का प्रारम्भ सांख्ययोग से करते है और अन्य कर्म योग से करते है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
ध्यान योग, योग सिद्धि का अन्तिम पड़ाव है।
प्राय मनुष्य के अन्तकरण में वासनाओं की प्रचुरता होती है। अतः गीता मे सर्व प्रथम वासना क्षय के उपाय के रूप में कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर ईश्वरार्पण की भावना से कर्म करने से पूर्वसंचित वासनाओं का क्षय हो जाता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं। इस प्रकार, चित्त के शुद्ध होने पर आत्मज्ञान की जिज्ञासा जागृत होने पर वह साधक शास्त्राध्ययन के (सांख्य योग) योग्य बन जाता है। तत्पश्चात् विवेक और वैराग्य के दृढ़ होने पर ध्यान योग के द्वारा अध्यात्म साधना के सर्वोच्च शिखर परमात्मतत्व को प्राप्त हो जाता है।
एक पड़ाव से दूसरे पर जाने पर पहले योग की अनिवार्यता बनी रहती है और साधक को अपने मनुष्य धर्म (कर्तव्यों) का पालन निश्चित रूप से करते रहना है। योग साधना का आरम्भ किसी प्रकार भी हो, साधक को अपने कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं करनी है। कारण कि कर्तव्यों का पालन ही योग है और योग की सिद्धि में सहायक है।
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