श्रीमद भगवद गीता : २६

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ।।१३-२६।।

 

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए समझो। ।।१३-२६।।

भावार्थ:

संसार मे जितने भी स्थावर और जंगम प्राणी है, योनियाँ है, उन सब के जन्म का कारण क्षेत्र और क्षेत्र की मूल प्रकृति है। प्रकृति के गुण है। अध्याय १३ श्लोक २१ मे वर्णन हुआ है कि अलग अलग योनियों मे उस योनि की मूल प्रकृति के गुणों के कारण उस योनि मे जन्म होता है।

अब इस श्लोक मे कहते है, कि प्राणी का जन्म होने पर उत्पन्न हुए क्षेत्र का संयोग क्षेत्रज्ञ से बना रहता है। अर्थात क्षेत्रज्ञ उत्पन्न हुए क्षेत्र में व्याप्त रहता है।

अन्य शब्दों मे क्षेत्र की उत्पति में क्षेत्रज्ञ प्रकाशक है।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संयोग का अर्थ यह नहीं है कि यह संयोग पहले नहीं था और संयोग होने से प्राणी की उत्पत्ति होती है।

यहा संयोग का अर्थ है, कि क्षेत्रज्ञ का संयोग उत्पत्ति से पहले भी था और उत्पत्ति होने पर एक से दो मे विभक्त हुआ क्षेत्र मे भी क्षेत्रज्ञ का संयोग बना रहता है।

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