भावार्थ:
पूर्व श्लोक मे वर्णन हुआ है कि प्राणी के जन्म होने पर क्षेत्रज्ञ की व्यापकता उत्पन्न हुए क्षेत्र मे बानी रहती है। इसके विपरित प्राणी के नष्ट होने पर क्षेत्रज्ञ नष्ट नही होता, अपितु पुरुष जो परमात्मतत्व स्वरूप है, उसकी स्थिति बनी रहती है।
एक और महत्वपूर्ण वक्तव्य भगवान श्रीकृष्ण प्रस्तुत करते है कि परमात्मतत्व सभी प्राणियों में और सभी प्रकार के प्राणियों (स्थावर और जंगम) मे समरूप से स्थित है। सभी प्रकार के प्राणियों के गुण अलग-अलग है परन्तु प्राणियों मे स्थित परमात्मतत्व समान रूप से एक है।
प्रतिक्षण विनाशकी तरफ जानेवाले प्राणियों में विनाशरहित, सदा एकरूप रहनेवाले परमात्माको जो निर्विकार देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है।
अध्याय १३ श्लोक २ में भगवान्ने कहा था कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही मेरे मतमें ज्ञान है? उसी बातको यहाँ कहते हैं कि जो नष्ट होनेवाले प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और सम देखता है, उसका देखना (ज्ञान) ही सही है। तात्पर्य है कि जैसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग में क्षेत्रमें तो हरदम परिवर्तन होता है, पर क्षेत्रज्ञ ज्योंकात्यों ही रहता है। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न और नष्ट होते हैं, पर परमात्मा सब अवस्थाओं में समानरूप से स्थित रहते हैं।
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