श्रीमद भगवद गीता : २८

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम् ।।१३-२८।।

 

क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वरको समरूप में देखने वाला मनुष्य अपने-आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। ।।१३-२८।।

 

भावार्थ:

सब देश में, काल में, सम्पूर्ण व्यक्तियों में, सम्पूर्ण वस्तुओं में, परमात्मतत्त्व  सब में एक रूप से, समान रीति से व्याप्त है। जो मनुष्य सब प्राणीओं केवल परमात्मतत्त्व को देखता है और स्वयं में समता का भाव रख कर सभी प्राणीओं को समान रूप से देखता है। ऐसा मनुष्य अपने-आपसे अपने प्रति द्वेष नहीं करता। कारण कि जो स्वयं को परमात्मतत्त्व स्वरूप देखता और अन्य प्राणीओं को भी परमात्मतत्त्व स्वरूप देखता तब द्वेष किस प्रकार होगा !

जब सब एकरूप है तो किसी से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। तब सम्बन्ध रहित साधक कल्याण को प्राप्त हो जाता है।

साधना से द्वेष रहित होने से साधक सबको समान रूप से देखता है, और सबको समान रूप से देखने वाला द्वेष रहित होता है।

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