भावार्थ:
अध्याय १३ श्लोक २० और अध्याय १३ श्लोक २२ में विस्तार से इसका वर्णन हुआ है कि क्षेत्र के द्वारा होने वाली सभी क्रियाओं का कारण क्षेत्र की मूल प्रकृति है।
मनुष्य द्वारा हो रही क्रिया को जब पुरुष,- चेतन तत्व अपने को अकर्ता अनुभव करता है, तब पुरुष के सभी प्रकार के सम्बन्ध का त्याग हो जाता और अन्त:करण मे समता की अनुभूति होती है। समता की अनुभूति ही यथार्थ अनुभूति है।
अतः सभी प्राणी को समान भाव से देखना और स्वयं को अकर्ता का भाव रखने से ही परमात्मतत्व की अनुभूति होती है जो मनुष्य के लिये कल्याणकारक है।
यहाँ अकर्ता का भाव यह नहीं है की मनुष्य कोई कार्य नहीं करता, अपितु प्राप्त कर्तव्यों को तत्परता से करता है। कार्य स्वयं के लिये नहीं होते, अपितु समाज के लिये होते है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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