श्रीमद भगवद गीता : ३१

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।।१३-३१।।

 

हे कौन्तेय! अनादि और निर्गुण होने से यह परमात्मा अव्यय है। शरीर में स्थित हुआ भी, वस्तुत: वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है। ।।१३-३१।।

भावार्थ:

परमात्मतत्व अव्यक्त है, परन्तु उनकी विशेषता का वर्णन पूर्व में भी श्रीमद भागवत गीता हुआ है, उसको ही यहां पूर्णः वर्णन किया है।

पूर्व श्लोक में जिस परमात्मतत्व को सम्पूर्ण संसार में हो रहे कार्य का कारण कहा अथवा प्राणीओं के उत्पति और नाश का कारण कहा है, वह अनादि, निर्गुण और अव्यय है।अर्थात प्राणी-पदार्थ में तो गुण दिखते है परन्तु उनके होने का कारण परमात्मतत्व निर्गुण है। प्राणीओं की उत्पति और नाश होता है परन्तु उनमे स्थित परमात्मतत्व अव्यय (नाश रहित) है।

यह परमात्मतत्व विलक्षणता ही है कि वह शरीर में स्थित हुआ कार्यों का कारण होते हुए भी न कार्य करता है और न फल से लिप्त होता है।

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