श्रीमद भगवद गीता : ३२

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ।।१३-३२।।

 

जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता। ।।१३-३२।।

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में भगवान ने कर्तृत्व का अभाव होने से भोक्तृत्वका अभाव बताया है। अब इस श्लोक में भोक्तृत्वका अभाव किस प्रकार है, इसको दर्शाने के लिए आकाश का दृष्टान्त दिया गया है।

जो वस्तुओं को रहने के लिए स्थान प्रदान करे वह आकाश है। पंचमहाभूतों में यह सूक्ष्मतम है, और इस कारण से सर्वगत है। जिस प्रकार सूक्ष्म आकाश, उसमें स्थित सभी स्थूल वस्तुओं को व्याप्त किये हुए है, उसी प्रकार आकाश से भी सूक्ष्म – परमात्मतत्व में स्थित आकाश को व्याप्त किये हुए है।

जिस प्रकार वायु, तेज, जल और पृथ्वी में व्याप्त आकाश को यह वस्तु उसे मर्यादित या अपने दोष से लिप्त नहीं कर सकती, उसी प्रकार देह (क्षेत्र) को वयाप्त  किया हुआ परमात्मतत्व, देह,  देह के विकारों से लिप्त नहीं कर सकती।

विलक्षण यह है कि परमात्मतत्व देह का कारण है, परमात्मतत्व में ही देह स्थित है और देह से अलग न हुआ देह में पूर्ण रूप से व्याप्त है। अर्थात देह ही परमात्मतत्व है। परमात्मतत्व ही उपकरण है, उपकरण रूप से कर्ता है, कर्ता का कार्य है, कार्य का कारण है और कारण परमात्मतत्व में स्थित है।

फिर भी परमात्मतत्व न कर्ता है, न भोक्ता है! कर्ता एवं भोक्ता केवल एक भाव है जो केवल मनुष्य में है। कारण की चेतन तत्व (पुरुष) शरीर और संसार से सम्बन्ध मान लेता है।

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