श्रीमद भगवद गीता : ३४

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।।१३-३४।।

 

इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्रसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके अन्तर-(विभाग-) को तथा कार्य-कारण सहित प्रकृतिसे स्वयंको अलग जानते हैं, वे परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं। ।।१३-३४।।

भावार्थ:

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ; नित्य-अनित्य; कर्त्ता-अकर्ता, कार्य-कारण; विभक्त-अविभक्त; इन को अलग-अलग जानने का नाम, ज्ञानचक्षु (विवेक) है।

क्षेत्र विकारी है, कभी एकरूप नहीं रहता, प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है, कभी स्थिर नहीं रहता हो। परन्तु इस क्षेत्र में रहने वाला, इसका प्रकाशक क्षेत्रज्ञ सदा एकरूप रहता है। क्षेत्रज्ञ में परिवर्तन न हुआ है, न होगा और न होना सम्भव ही है।

इस ज्ञान-विज्ञान को इस तरह जानना, जान कर अनुभव करने से ही अन्तःकरण में समता (परमात्मा) की अनुभूति होती है।

मनुष्य जीवन प्रान्त आनन्द की अनुभूति जी निरन्तन बनी रहे, इस प्रयास में रत रहता है। दुर्भाग्य पूर्ण यह है कि इस प्रयास में मनुष्य शरीर से सम्बन्ध मान कर शरीर निर्वाह हेतु प्राप्त चार विकार इच्छा, दुवेश, दुःख और सुख का भोक्ता बन जाता है। शरीर की पीड़ा से उत्तपन्न दुःख का भाव और इच्छा-दुवेश से उत्तपन्न दुःख का भाव स्वयं में कर के उसके निवारण हेतु कार्य करता है। दुःख का निवारण सुख का भाव होता है, जो की स्वल्प समय के लिये होता है। इस सुख को मनुष्य आनन्द की अनुभूति मान कर उस सुख के लिये नित्य नये-नये प्रयत्न करता है। और इस चक्र में उलझा रहता है।

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