भावार्थ:
‘अव्यक्तमेव च’ : मूल प्रकृति, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, स्मृति, संस्कार – यह वह अलंकार है जो प्राणी-पदार्थ मे हो रही क्रिया का कारण है। इस श्लोक मे इस अलंकार को ‘अव्यक्त’ पद से व्यक्त किया गया है, और अध्याय १३ श्लोक १९ मे ‘प्रकृति’ पद से व्यक्त किया गया है।
इस श्लोक मे जो अन्य तेईस तत्वों का वर्णन हुआ है, उन सब में होने वाली क्रिया, अथवा गुण के लिये जो स्मृति एवं ज्ञान चाहिये वह उनको उनकी मूल प्रकृति से प्राप्त है। विचार करने वाली बात है कि बुद्धी को बुद्धिमत्ता कहा से प्राप्त है? बुद्धी की मूल प्रकृति बुद्धिमत्ता है जो उसको परमात्मतत्व से प्राप्त है।
अध्याय १३ श्लोक १६ मे परमात्मतत्व की सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त हुई स्थिति का जो वर्णन हुआ है उसको ही इस श्लोक मे क्षेत्र की प्रकृति कहा गया है। अध्याय १३ श्लोक १६ मे जो समस्त इन्द्रियों के कार्यों को प्रकाशित करने वाला परमात्मतत्व है उसको ही इस श्लोक मे क्षेत्र की प्रकृति कहा गया है।
अतः इस मूल प्रकृति को परमात्मतत्व ही होने के कारण ‘अव्यक्त’ कहा गया है।
‘महाभूत’: पृथ्वी, जल, तेज वायु और आकाश – ये पाँच महाभूत हैं, जिनसे शरीर बना है।
इस शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं – श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं – वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु। इन्द्रियों के पाँच विषय हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध।
‘अहंकार‘: चेतन तत्व जो शरीर में बाहरी क्रियों का द्रष्टा है, शरीर से तादात्म्य (सम्बन्ध) करने से अहंकार भाव धारण करता है।
‘मन‘: संसार में मनुष्य जो कार्य करता हैं तथा फल भोगता हैं, उनसे हमारे मन में संस्कार बनते हैं। जो हमारे भावी विचार, भावनाओं, एवं कार्यों को दिशा प्रदान करते हैं।
‘बुद्धि‘: जीवन में वस्तु की यथार्थता? अनुभवों का शुभ और अशुभ रूप में निर्धारण करना ही बुद्धि का कार्य है।
दस इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ) के द्वारा मनुष्य क्रमश प्रत्येक विषय ग्रहण करता है। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय केवल एक ही विषय का ग्रहण करती है। पाँचों इन्द्रियों से सम्बद्ध मन समस्त विषय संवेदनाओं को एकत्र कर पूर्व संस्कार के अनुसार विषयों को भावनाओं के साथ बुद्धि के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत करता है। इस प्रकार, विषय ग्रहण तथा प्रतिक्रिया का व्यक्त होना इन दोनों का कार्य एक मन ही करता है। इसलिए उसे यहाँ एक शब्द से इंगित करते हैं।
तत्पश्चात् बुद्धी निर्णय कर उस निर्णय को पाँच कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्यान्वित करता है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
अन्नमयकोश – स्थूलशरीर मातापिता के रजवीर्य से पैदा होता है। रजवीर्य अन्न से पैदा होता है, माता के गर्भ में अन्न से ही शरीर विकसित होता है। इसलिये स्थूलशरीर को अन्नमयकोश भी कहा गया है। प्राणी की उत्त्पति का वर्णन विस्तार से अध्याय ३ श्लोक १४ में भी हुआ है।
स्थूलशरीर – पाँच भौतिक मूल तत्व (पृथ्वी? जल? तेज? वायु और आकाश) से बना होने के कारण और भौतिक होने के कारण इसको स्थूलशरीर कहते है।
सूक्ष्मशरीर – पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि — इन सत्रह तत्त्वोंसे बने हुएको सूक्ष्मशरीर कहते हैं।
प्राणमयकोश – प्राणोंकी प्रधानताको लेकर सत्रह तत्त्वों वाला सूक्ष्मशरीर प्राणमयकोश कहलाता है।
मनोमयकोश – मनकी प्रधानताको लेकर सूक्ष्मशरीर मनोमयकोश कहलाता है।
विज्ञानमयकोश – बुद्धिकी प्रधानताको लेकर सूक्ष्मशरीर विज्ञानमयकोश कहलाता है।
कारणशरीर — मन, बुद्धि और इंगित संस्कार (स्मृति) को मिला कर अन्तःकरण कहा गया है। सूक्ष्मशरीर इंगित संस्कार के साथ कारणशरीर कहलाता है। कारणशरीर में संस्कार इंगित होने से कारणशरीर को मनुष्य का स्वभाव अथवा प्रकृति भी कह देते हैं।
आनन्दमयकोश — जाग्रत्अवस्था में स्थूलशरीर की प्रधानता होती है और बुद्धि को उसका ज्ञान होता है। इस अवस्था में नय संस्कार बनते है और बने हुए संस्कारों से भाव (सुख-दुःख) उत्तपन्न होते है और मन, बुद्धि एवं शरीर से क्रिया होती है। स्वप्न अवस्था में सूक्ष्मशरीर की प्रधानता होती है और स्थूलशरीर का ज्ञान नहीं रहता। इस अवस्था में स्थूलशरीर से नय कार्य नहीं होने से नय संस्कार नहीं बनते। परन्तु मन, और बुद्धि में कार्य होते है और पूर्व संस्कारों से भाव (सुख-दुःख) उत्तपन्न होते है। सुषुप्तिअवस्था में कारणशरीर की प्रधानता होती है और स्थूलशरीर एवं सूक्ष्मशरीर का ज्ञान नहीं रहता। इस अवस्था मन, बुद्धि एवं शरीर, किसी भी में भी कार्य न होने से कोई भाव (सुख-दुःख) नहीं रहता। जो रहता है वह केवल समता रूपी आंनद रहता है। इसलिये कारणशरीरको आनन्दमयकोश कहते हैं।
जाग्रत्अवस्था में जब मनुष्य के सब कार्य केवल समाज के लिये होते है। किये गये कार्य में अहंता नहीं होती एकान्त समय में केवल परमात्मा का ही विचार रहता है तब जाग्रत्अवस्था में नय संस्कार नहीं बनते। पूर्व में बने हुए संस्कार विलीन होते जाते है और विषमता रूपी भाव भी समाप्त होते जाते है। यह योग की स्थिति है और इस स्थिति में चलते रहने से अन्त में केवल समता का भाव ही रह जाता है, जो परमान्द का भाव है और उसको प्राप्त होना परमात्मा को प्राप्त होना है।
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