श्रीमद भगवद गीता : ०६

चौबीस तत्त्वोंवाला स्थूलदेह विकारों के साथ प्राण को धारण करता है।

 

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।

एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।।१३-६।।

 

 

संक्षेप में यह क्षेत्र — संघात (चौबीस तत्त्वोंवाला स्थूलदेह) इच्छा, द्वेष, सुख, दुख रूपी विकारों के साथ प्राण को धारण करता है। ।।१३-६।।

भावार्थ:

इच्छा‘: जिस प्रकारके सुखदायक विषयका पहले उपभोग किया हो, फिर वैसे ही पदार्थ को प्राप्त करने की चाह का नाम इच्छा है। भूख लगने पर खाने की इच्छा का होना। शरीर को शीत का अनुभव होने पर वस्त्र पहनने की इच्छा का होना। इस प्रकार शरीर निर्वाहा के लिये मनुष्य को अनेक प्रकार की इच्छा होती है। शरीर निर्वाह के लिये उत्त्पन्न इच्छा आवश्यक है। परन्तु जब इच्छा पूर्ति होने पर मनुष्य सुख की अनुभूति लेता है और प्राप्त वस्तु का भोग करता है, तब वह इच्छा विकार का रूप धारण करती है।

द्वेष‘: पूर्व में जिस पदार्थ को प्राप्त करने पर दुःख का अनुभव किया हो। फिर उसी जातिके पदार्थ के प्राप्त होनेपर जो मनुष्य द्वेष करता है, उस भावका नाम द्वेष है। जो पदार्थ या परिस्थित्ति शरीर को कष्ट को देने वाली होती है, उनके प्रति मनुष्य को द्वेष भाव उत्तपन्न होता है। पुनः शरीर निर्वाह के लिये उत्त्पन्न द्वेष आवश्यक है। परन्तु द्वेष से उत्त्पन्न क्रोध, हिंसा, कर्तव्यों का त्याग, द्वेष रूपी विकार।

दुःख‘: यहा दुःख का अर्थ शरीर में होने वाली पीड़ा से है। यह पीड़ा शरीर को बाहरी क्षति और भीतर के विकारों (बीमारी) से बचाने और उनका उपचार करने में आवश्यक है। अगर पीड़ा नहीं होगी तो मनुष्य को उस कष्ट का अज्ञात ही नहीं होगा और मनुष्य उसका उपचार नहीं करे गा। परन्तु मनुष्य शरीर से सम्बन्ध मान कर उस क्षति-विकार के होने पर जो दुःख मानता है वह विकार है।

सुख‘: शरीरिक पीड़ा का निवारण, इच्छा पूर्ति – सुख की अनुभूति है।

‘संघातः’ – चौबीस तत्त्वोंसे बने हुए शरीररूप समूहका नाम संघात है।

‘चेतना’ – शरीर में जो प्राण चल रहे (प्राणशक्ति) हैं, उसका नाम चेतना है।

पूर्व श्लोक में वर्णिंत चौबीस तत्त्वोंवाला क्षेत्र (संघातः) और चार मूल विकार(इच्छा, द्वेष, सुख, दुख) शरीर में प्राण को धारण करने में सहायक है।

जीवन निर्वाहा के लिये इच्छा, द्वेष, दुख और सुख जीवन के लिये अनिवार्य विकार है, प्रकृति से प्राप्त है और क्षेत्र के तत्व है। इन विकारों के न होने पर प्राणी के लिये जीवित रहना असंभव है।

पूर्व और इस श्लोक में वर्णित तत्व और उनमें हो रही क्रिया के द्वारा क्षेत्र का विज्ञानं बताया गया है।

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