श्रीमद भगवद गीता : ०७

अध्याय १३ श्लोक ७

 

 

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।।१३-७।।

 

अमानित्व – (अपने में श्रेष्ठताके भाव का न होना), अदम्भित्व-(दिखावटीपन का न होना), अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना। ।।१३-७।।

 

भावार्थ:

‘अमानित्व’ – वर्ण, योग्यता, विद्या, गुण आदि को लेकर अपने में श्रेष्ठता का भाव ना होना अमानित्व है।

‘अदम्भित्व’ – अपने में श्रेष्ठता का भाव का होना और उसको प्रकट करना दम्भ है। श्रेष्ठता का प्रदर्शन न करने का स्वभाव अदम्भित्व है।

अहिंसा‘ – शरीर, मन, वाणी, भाव आदि के द्वारा किसी का भी किसी प्रकार से अनिष्ट न करने को ‘अहिंसा’ कहते हैं।

‘क्षान्ति’ – अपने प्रति अपराध देखकर भी, अपराध करने वाले को कभी किसी प्रकारसे किञ्चिन्मात्र भी दण्ड न मिले क्षमा है। अपने में सामर्थ्य होने पर स्वयं दण्ड न देना क्षमा है और सामर्थ्य न होने पर किसी दूसरे के द्वारा दण्ड दिलवाने का भाव न रखना ही क्षान्ति है।

‘आर्जवम्’ – साधक के शरीर, मन और वाणी में सरलता का होना आर्जवम् है। शरीर की चाल-ढाल से, रहन-सहन से, वस्त्रो से अहंकार न दिखना शरीरकी सरलता है। छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदिका न होना तथा निष्कपटता, सौम्यता, हितैषिता, दया आदिका होना मनकी सरलता है। व्यंग्य, निन्दा, आदि न करना, चुभनेवाले एवं अपमानजनक वचन न बोलना तथा प्रिय और हितकारक वचन बोलना, यह वाणी की सरलता है।

‘शौचम्’- अन्तःकरण में विषमता का न होना अन्तःकरण की शुद्धता है।

स्थैर्यम् – जो विचार कर लिया, लक्ष्य बना लिया, उससे विचलित न होना स्थैर्य – बुद्धि की स्थिरता है।

 

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