श्रीमद भगवद गीता : ०८

क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर दुःखरूप दोषों का त्याग करे।

 

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।१३-८।।

 

 

इन्द्रियों के विषयोंमें वैराग्य का होना, अहंकार का भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार न देखना। ।।१३-८।।

 

 

भावार्थ:

इन्द्रियों के विषयों के प्रति अन्त:करण में राग-द्वेष का भाव न होना। राग से ही कामनाओं की उत्पत्ति है और कामना ही सभी प्रकार की विषमताओं का कारण है, दल-दल है जो मनुष्य के कल्याण,  भागवत प्राप्ति में बाधक है।

मनुष्य को नींदसे जगनेपर सबसे पहले अहम् अर्थात् मैं हूँ — इस वृत्तिका ज्ञान होता है। शरीर के द्वारा हो रहे कार्यों को मैं करता हूँ ऐसा भाव होना अहंकार है।

अमुक शरीर, नाम, जाति, वर्ण, सांसारिक पदार्थ, ज्ञान, विद्या, त्याग, देश, आदि के साथ अपना सम्बन्ध मानकर अभिमान पैदा होता है।

अहंकार के त्याग मे, सबसे पहले स्थूलशरीरसे सम्बन्धित धनादि पदार्थोंका अभिमान मिटता है। फिर कर्मेन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहनेवाले कर्तृत्वाभिमानका नाश होता है। उसके बाद बुद्धिकी प्रधानतासे रहनेवाला ज्ञातापनका अहंकार मिटता है।

दुःख रूप दोषों का विचार क्या है।

जन्म के समय होने वाले दुःख – माताके खाये हुए नमक, मिर्च आदि क्षार और तीखे पदार्थों से बच्चे के शरीर में जलन होती है। गर्भाशयमें रहनेवाले सूक्ष्म जन्तु भी बच्चेको काटते रहते हैं। प्रसवके समय माता को जितनी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा उदरसे बाहर आते समय बच्चेको होती है।जन्मसे पहले माताके उदरमें बच्चा जठराग्निमें पकता रहता है।

इस प्रकार जन्म से पूर्व और जन्म के समय होने वाले दुःख का विचार होते रहना चाहिये।

वृद्धावस्थामें होने वाले दुःख – वृद्धावस्थामें शरीर और अवयवोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है। जिससे चलने-फिरने, उठने-बैठने में कष्ट होता है। हर तरह का भोजन पचता नहीं। बड़ा होनेके कारण परिवार से मनुष्य आदर चाहता है, परन्तु कोई प्रयोजन न रहनेसे घरवाले निरादर, अपमान करते हैं। तब मन में पहलेकी बातें याद आती हैं कि मैंने धम कमाया, इनको पालापोसा है, पर आज ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं इन बातोंको लेकर बड़ा दुःख होता है। इस तरह वृद्धावस्थाके दुःख का विचार बना रहना चाहिये।

मृत्यु के समय होने वाले दुःख – मृत्युके समय जब प्राण शरीरसे निकलते हैं, तब हजारों बिच्छू शरीरमें एक साथ डंक मारते हों – ऐसी पीड़ा होती है। उम्र भर में कमाये हुए धन, मकान और अपने परिवारसे जब वियोग होता है और फिर उनके मिलने की सम्भावना नहीं रहती, तब बड़ा भारी दुःख होता है। जिस धनको कभी किसीको दिखाना नहीं चाहता था, जिस धनको परिवारवालोंसे छिपाछिपाकर तिजोरीमें रखा था, उसकी चाबी परिवारवालोंके हाथमें पड़ी देखकर मनमें असह्य वेदना होती है। इस तरह मृत्युके दुःखरूप विचार को करते रहना चाहिये।

जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखनेका तात्पर्य है – मनुष्य जब-जब शरीर और सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति,  ममता अथवा अहंकार करता है,  तब-तब वह जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखरूप दोषों का विचार करे।

ऐसा करने से शरीर और सांसारिक पदार्थों के प्रति जो आसक्ति, ममता अथवा अहंकार होता है उसको त्याग करने में सुगमता होती है।

अन्यथा यह दुखरूप मन की विकृति है, दोष है जिसका मनुष्य को त्याग करना चाहिये,  कारण कि यह सब शरीर की क्रिया है स्वयं आत्म स्वरूप की नहीं।

अर्थात इस विचार की सार्थकता आसक्ति, ममता अथवा अहंकार का त्याग करने में ही है,  अन्यथा इस भाव- विचार का भी त्याग करना चाहिये।

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