श्रीमद भगवद गीता : ०९

असक्ितरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।

नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।।१३-९।।

 

आसक्तिरहित होना; पुत्र, स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना। ।।१३-९।।

भावार्थ:

प्रकृति पदार्थ, परिस्थिति,  क्रिया के प्रति आसक्ति (प्रियता) के साथ सक्ति (संग) का त्याग करना बहुत आवश्यक है।

पुत्र, स्त्री, घर, धन, आदि के साथ माना हुआ जो घनिष्ठ ममता है, उसको मोह कहते है, जिसके कारण शरीरपर भी असर पड़ता है। जैसे,  पुत्रके साथ माताकी एकात्मता रहनेके कारण जब पुत्र बीमार हो जाता है, तब माताका शरीर कमजोर हो जाता है। ऐसे ही पुत्रके,  स्त्रीके मर जानेपर मनुष्य कहता है कि मैं मर गया, धनके चले जानेपर कहता है कि मैं मारा गया, आदि। ऐसी एकात्मतासे रहित होनेके लिये यहाँ अनभिष्वङ्गः पद आया है।

मनके अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, आदि के प्राप्त होनेपर चित्तमें राग, हर्ष, सुख आदि विकार न हो और मनके प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके प्राप्त होनेपर चित्तमें द्वेष, शोक, दुःख, उद्वेग आदि विकार न हो। तात्पर्य है कि अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके प्राप्त होनेपर चित्तमें निरन्तर समता बनी रहे।

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